गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व वैशाख पूर्णिमा के दिन, कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी (आज का नेपाल) में हुआ था।कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई जिसमें एक बालक का जन्म हुआ।इनके पिता शुद्धोधन एक शाक्य गणराज्य के राजा थे। जन्म के पांचवे दिन नामकरण संस्कार किया गया। बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। उनका गोत्र गौतम था। इसलिए बालक जनसाधारण में सिद्धार्थ गौतम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जन्म देने के 7 दिन बाद सिद्धार्थ की माता महामाया देवी की मृत्यु हो गयी। जिसके बाद, सिद्धार्थ का लालन-पालन उनकी मौसी और राजा की दूसरी पत्नी महाप्रजापति गौतमी ने किया। उल्लेखनीय है कि वैशाख पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इसी दिन गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था।
सिद्धार्थ गौतम के जन्म के समय असित ऋषि ने उनके बारे में भविष्यवाणी की थी कि यदि यह बालक गृहस्थ रहा, तो चक्रवर्ती सम्राट होगा और यदि गृहत्याग कर सन्यासी बना तो सम्यक बुद्ध होगा।
सिद्धार्थ गौतम का 16 साल की आयु में दंडपाणि शाक्य की कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ और विवाह उपरान्त उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम राहुल रखा। शाक्य परम्परा के अनुसार, 20 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ गौतम शाक्य संघ में दीक्षित हुए ।शाक्य संघ में उनका कुछ विषयों को लेकर संघ के शेष सदस्यों के साथ निरंतर विवाद थे, जिनके परिणामस्वरुप उन्होंने गृह त्याग का निर्णय किया और कपिलवस्तु छोड़कर मगध राज्य की राजधानी राजगृह गए। बुद्ध के गृहत्याग की अवधि को बौद्ध धर्म में अभिनिष्कमण कहा गया है। सिद्धार्थ गौतम ने 29 वर्ष की आयु में गृहत्याग किया और 6 वर्ष की कठिन तपस्या की।
उन्हें 35 वर्ष की आयु में, वैशाख की पूर्णिमा की रात्रि को निरंजना नदी के तट पर पीपल वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ। इस ज्ञान प्राप्ति के बाद ही सिद्धार्थ "गौतम बुद्ध" कहलाए। उन्हें जिस स्थान पर ज्ञान प्राप्त हुआ वह स्थान बोधगया के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बुद्ध ने अपना पहला प्रवचन सारनाथ (काशी के समीप) में दिया, जिसे बौद्ध ग्रंथों में "धर्मचक्र प्रवर्तन" कहा जाता है।
गौतम बुद्ध ने ज्ञान के प्रवेश मार्ग समाज के सभी वर्गों के लिये खोल दिए । इस स्थिति पर स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि उस समय भारत के लोगों ने अद्भुत शिक्षा प्राप्त की होगी। उन्होंने अत्यंत मुक्त-मन से ज्ञान दिया और सर्वसाधारण जनता ने उनका अनुसरण किया। यह बुद्ध ज्ञान का ही प्रभाव था कि तत्कालीन राजाओं ने अपने सिंहासन त्याग दिए; रानियों ने राजमहल छोड़ दिए। यहाँ तक कि आम जन उनकी शिक्षा की सराहना करते हुए, उसका अनुसरण करने लगी। तत्कालीन पुरोहितों के प्रचलित ज्ञान से बुद्ध की शिक्षा के भिन्न होने के कारण जनसाधारण के लिए एक क्रांतिकारी परिवर्तन था। यह बुद्ध की स्वतंत्र दृष्टि और लोक के व्यापक हित की चिंता के कारण ही संभव हो पाया।
पंचशील, बौद्ध धर्म की मूल आचार संहिता है जिसको थेरवाद बौद्ध उपासक एवं उपासिकाओं के लिये पालन करना आवश्यक माना गया है। हिंसा न करना, चोरी न करना, व्यभिचार न करना, झूठ न बोलना और नशा न करना । इन पांच सिद्धांतों को पंचशील के सिद्धांत कहा जाता है। गौतम बुद्ध कहते हैं कि हर आदमी के लिये यह अवाशक है कि वह इन पांच शीलो को स्वीकार करे क्योंकि हर आदमी के लिये जीवन का कोई मापदंड होना चाहिए , जिससे वह अपनी अच्छाई – बुराई को माप सके ; मेरे धर्म के अनुसार ये पांच शील जीवन की अच्छाई – बुराई मापने के मापदंड ही है।
गौतम बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग के सिद्धांत को कल्याणकारी राज्य के लिये प्रथम और प्रधान माना है। उनका कहना है कि समाज में दुःख है, और दुःख का कारण है तथा इस दुःख का निवारण है। दुःख निवारण करने का मार्ग है और दुःख से मुक्ति पाने का रास्ता अष्टांगिक मार्ग कहलाता है। जीवन मे स्थाई ख़ुशी के लिए इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। गौतम बुद्ध कहते हैं जब चारो ओर अंधकार और निराशा का वातावरण हो तो आदमी को स्वयं को आदर्श मानकर, संकल्प बल और इच्छा शक्ति को जाग्रत कर, क्रिया – शील बनाना चाहिए और ऐसा करने में सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प ,सम्यक वाणी, सम्यक कर्म , सम्यक जीविका , सम्यक व्यायाम , सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि का मार्ग उत्तम है। सम्यक दृष्टि का अंतिम उद्देश्य अज्ञानता का विनाश करना है, वह मिथ्या दृष्टि की विरोधी है, इससे जातीय विषमता और अहंकार का निषेध होता है, जो योग्य संकल्प के बिना संभव नही है। हमारा संकल्प योग्य हो, हमारी योग्यता के अनुरूप हो।
सम्यक वाणी का मतलब सत्य बोलना और झूठ न बोलना, सार्थक और समर्थ बातें करना तथा विनम्र वाणी का प्रयोग करना है। सम्यक कर्म का मतलब हानिकारक कर्म न करना, अपना कर्म करते समय दूसरों की भावनाओं और अधिकारों का ध्यान रखना, कर्म जीवन में समन्वय रखना। सम्यक जीविका का मतलब कोई भी हानिकारक व्यापार न करना जिससे समाज पर दुष्प्रभाव पड़े, दूसरे को हानि हो। सम्यक व्यायाम का मतलब अपने आप सुधरने की कोशिश करना, अष्टांगिक मार्ग पर चलने की चित्त वृत्ति आना, अज्ञान को नष्ट करने के उपाय, चित्त वृत्ति का विकास और वृद्धि करना। सम्यक स्मृति का अर्थ स्पष्ट ज्ञान से देखने की मानसिक योग्यता पाने की कोशिश करना, मन पर नियन्त्रण रखना, हर बात पर ध्यान देना, हर बात को ध्यान से सुनना तथा सम्यक समाधि का अर्थ चित्त की निरंतर एकाग्रता और अहंकार का खोना, हमेशा दूसरों के कुशल और भलाई के बारे मे सोचना।
पारिवारिक व्यक्ति के लिये बुद्ध ने शील व सद्गुणों का मार्ग समझाया है। उन्होंने बताया है कि शील के पथ का पथिक होने का मतलब है इन दस सद्गुणों का अभ्यास करना; शील , दान, नैष्क्रम्य, प्रज्ञा, वीर्य, शांति, सत्य, अधिष्ठान, मैत्री और उपेक्षा।
जब कोई व्यक्ति ‘दान’ पारमिता को आरंभ करता हुआ ‘उपेक्षा’ की पूर्ति तक पहुंचता है, तब तक वह बोधिसत्व रहता है। लेकिन इन सबको पूरा करने के बाद वह बुद्ध बन जाता है. पारमिताएं नैतिक मूल्य होती हैं, जिनका अनुशीलन बुद्धत्व की ओर ले जाता है।
बौध धर्म में दान का अर्थ उदारतापूर्ण देना होता है, त्याग को भी दान माना जाता है। बौद्ध धर्म में भोजन दान, वस्त्र दान व नेत्र दान की प्रथा है। दान बुद्धत्व की पहली सीढ़ी है। इसके पीछे कर्तव्य की भावना होनी चाहिए, प्रशंसा व यश के लिए दिया गया दान, दान नहीं होता। शील अर्थात सब प्रकार के शारीरिक, वाचिक, मानसिक और सब शुभ व नैतिक कर्म, शील के अंतर्गत आते हैं। मनुष्य को हत्या चोरी व व्यभिचार, झूठ व बकवास, शराब तथा मादक द्रव्यों से दूर रहना चाहिए । बुद्ध ने इनमें भिक्खुओं के लिए तीन शील और जोड़ दिए हैं – कुसमय भोजन नहीं करना, गद्देदार आसन पर नहीं सोना और नाच-गाना तथा माला-सुगंध आदि के प्रयोग से बचना। नैष्क्रम्य: इसका अर्थ महान त्याग होता है, बोधिसत्व राज्य व अन्य भौतिक भोगों को तिनके के समान त्याग देते हैं।
प्रज्ञा का अर्थ होता है, जानना, नीर-क्षीर विवेक की बुद्धि, सत्य का ज्ञान जैसी वस्तु है, उसे उसी प्रकार की देखना प्रज्ञा होती है। आधुनिक भाषा में वैज्ञानिक दृष्टि व तर्क पर आधारित ज्ञान होता है। बौद्ध धर्म में प्रज्ञा, शील, समाधि ही बुद्धत्व की प्राप्ति के महत्वपूर्ण माध्यम होते हैं।
वीर्य का अर्थ है की आलस्यहीन होकर भीतरी शक्तियों को पूरी तरह जाग्रत करके लोक-कल्याण, अध्यात्म-साधना व धर्म के मार्ग में अधिक से अधिक उद्यम करना। ऐसे उद्यम के बिना मनुष्य किसी भी दिशा में उन्नति एवं विकास नहीं कर सकता।
शांति का अर्थ है सहनशीलता। बोधिसत्व सहनशीलता को धारण करते हुए, इसका मूक भाव से अभ्यास करता है, वह लाभ-अलाभ, यश-अपयश, निंदा-प्रशंसा, सुख-दुख सबको समान समझकर आगे बढ़ता है।
सत्य की स्वीकृति व प्रतिपादन ही सत्य पारमिता है. इसे सम्यक दृष्टि भी कहते हैं। जैसी वस्तु है, उसे वैसा ही देखना, वैसा कहना व वैसा ही प्रतिपादन करना सत्य है। यह बड़ा कठिन कार्य है। सत्य में सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प व सम्यक विचार का समावेश होता है।
अधिष्ठान पारमिता का अर्थ दृढ़ संकल्प होता है । शुभ व नैतिक कर्मों के संपादन में अधिष्ठान परम आवश्यक होता है। पारमिताओं के अभ्यास के लिए दृढ़-संकल्प की आवश्यकता पड़ती है । दृढ़-संकल्प होने पर ही बोधिसत्व गृहत्याग करते हैं।
मैत्री इसका अर्थ है उदारता व करुणा । सभी प्राणियों, जीवों व पेड़ – पौधों के प्रति मैत्री भाव रखना । बोधिसत्व मन में क्रोध, वैर व द्वेष नहीं रखते, जैसे मां अपने प्राणों की चिंता किए बिना बेटे की रक्षा करती है, उसी प्रकार बोधिसत्व को मैत्री की रक्षा करनी चाहिए।उपेक्षा पारमिता का अर्थ है पक्षपात-रहित भाव रखकर बुद्धत्व की ओर आगे बढ़ना । कोई भी बोधिसत्व इन दस सदगुणों में पूर्णता प्राप्त करके स्वयं बुद्ध बन सकता है।
ईर्ष्या, राग, अज्ञान, हिंसा, चोरी, व्याभिचार और असत्य, पवित्रता की जड़ खोद देते है इसलिए व्यक्तिगत पवित्रता के बिना जन कल्याण नही हो सकता । फरवरी,1890 को गाजीपुर, उत्तर प्रदेश की एक सभा में स्वामी विवेकानंद ने कहा था भगवान बुद्ध मेरे ईश्वर हैं - मेरे भगवान। उन्होंने भगवान के बारे में कोई सिद्धांत प्रचारित नहीं किया, वह खुद भगवान थे, मैं इसे पूरी तरह से मानता हूं। अमेरिका प्रवास के दौरान सन फ्रांसिस्को शहर उन्होंने कहा था कि बौद्ध धर्म से मेरे कुछ मतभेद है लेकिन मैं बुद्ध को बहुत पसंद करता हूं । मुझे उस चरित्र के लिए किसी अन्य की तुलना में अधिक श्रद्धा है – उनमें जबरदस्त साहस, निडरता है, और वह अदभुत प्रेम और करुणा की मूर्ति हैं।
गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म के विषय में महात्मा गाँधी ने बहुत लेख लिखे, उनके लेख 'यंग इंडिया', 'नवजीवन', 'हरिजन' 'इंडिया ओपिनियन' सहित दूसरे पत्र-पत्रिकाओं में भी छपे । गांधी मानते थे कि भारत के हिंदू समाज ने बुद्ध के प्रमुख सिद्धांतों को आत्मसात् कर लिया । श्रीलंका के अपने भाषण में गांधी ने कहा था- ‘गहरे विचार के बाद मेरी यह धारणा बनी है कि बुद्ध की शिक्षाओं के प्रमुख अंग आज हिंदू धर्म के अभिन्न अंग हो गए हैं । गौतम ने हिंदू धर्म में जो सुधार किए, उनसे पीछे हटना आज भारत के हिंदू समाज के लिए असंभव है । अपने महान त्याग-वैराग्य, अपने जीवन की निर्मल-पवित्रता से गौतम बुद्ध ने हिंदू धर्म पर अमिट छाप डाली है और हिंदू धर्म उस महान शिक्षक से कभी उऋण नहीं हो सकता।
आज विश्व एक संक्रमण काल से गुजर रहा है, आर्थिक हित मानव मूल्यों पर हावी है । एक ओर मानव ने विज्ञान, तकनीकि और यांत्रिकी में विकास एवं उसका उपयोग करके अपार समृद्धि प्राप्त की है, वही दूसरी ओर मानव ने स्वार्थ, लोभ, हिंसा आदि भावनाओं के वशीभूत होकर अहिंसा व सैन्य शक्ति द्वारा, आर्थिक असमानता व प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया है तथा अकल्याणकारी और विनाशकारी मार्ग भी अपनाया है । अतः आज के समय दुनिया में भौतिक सम्पदा के साथ - साथ मानव अस्तित्व को भी बचाना आवश्यक हो गया है । बंधुभाव के बारे में बुद्ध ने कहा था कि “वैर से वैर शांत नहीं होता. अवैर से ही वैर शांत होता है ” यह मंगलकारी सूत्र हमेशा से सार्थक रहा है।
डॉ. आंबेडकर ने भी कहा था कि हिंसा द्वारा प्राप्त की गयी जीत स्थायी नहीं होती क्योंकि कि उसे प्रतिहिंसा द्वारा हमेशा पलटे जाने का डर रहता है । अतः वैर को जन्म देने वाले कारकों को बुद्ध ने पहचान कर उनको दूर करने का मार्ग बहुत पहले ही प्रशस्त किया था । इसलिए समाज में व्याप्त अज्ञान, अहिंसा, व्यभिचार, असत्य और अहंकार को कम करने के लिए पंचशील और अष्टांगिक मार्ग के नैतिक एवं कल्याणकारी जीवन दर्शन का अनुशरण आवश्य है।
बुद्ध के दर्शन में समानता का अर्थ इस तथ्य को रेखांकित करना है कि हर व्यक्ति एक गरिमापूर्ण उपस्थिति है और हर एक व्यक्ति को अवसर, संसाधनों, अधिकारों आदि की उपलब्धता बिना किसी भेदभाव के सुनिश्चित की जानी चाहिए । हम सभी यह जानते हैं कि दुनिया में मौजूद अधिकांश विषमताएं मनुष्य-जनित हैं । उदाहरण के लिए, हम जाति-व्यवस्था को ले सकते हैं।
न्याय, स्वतंत्रता और मानवाधिकार के सिद्धांत समानता के सिद्धांत के ही विस्तार हैं । इसका अर्थ यह है कि समानता इन सिद्धांतों का आधार-तत्व है । यदि हमारे समाजों में समानता की भावना सुदृढ़ होगी तो न्याय, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, सामाजिक परिवर्तन, व्यक्तिगत विकास, शांति, सौहार्द और समृद्धि की ओर हम तेजी से बढ़ सकेंगे । मानव-निर्मित विषमता ही अन्याय, शोषण, अत्याचार, हिंसा, सामाजिक तनाव और सौहार्दहीनता का मूल स्रोत है।
इस स्थिति में बुद्ध का धम्म विभिन्न धर्मो और पंथों के बीच वैचारिक संवाद का सैद्धांतिक आधार बन सकता है । ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि यह एक शाश्वत, स्वाभाविक और नैतिक सिद्धांत है जो देश और काल की सीमाओं से आबद्ध नहीं है । खोखले सांप्रदायिक पराभौतिक सत्य के समक्ष यह एक नैतिक सत्य है । वैसे भी बुद्ध के सिद्धांत स्वयं और अन्य की पारस्परिक आवश्यकता को रेखांकित करते हैं । इस कारण सार्वभौमिक मानवीय लक्ष्य आज के विश्व की आवश्यकता का समाधान धम्म ही है क्योंकि यह मान्यता और व्यवहार तथा आदर्श और वास्तविक के बीच की दूरी को पाटता है।
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