भक्त कवि नरसिंह मेहता (विक्रम संवत 1417 से 1536, ई.स 1413 से 1479)

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पिता: कृष्णदामोदरजी
माता: दयाकुंवरजी
जन्म : तलाजा, जूनागढ़, सौराष्ट्र, गुजरात।
मृत्यु : मांगरोल, सौराष्ट्र, गुजरात।
   
श्री नरसिंह मेहता गुजरात प्रांत में आदि कवि के रूप में जाने जाते हैं। उनका जन्म वडनगरा नागर ब्राह्मण कुल में हुआ था। तलाजा के समीप जंगल में अपूजित श्री गोपीनाथ महादेव की नरसिंह मेहता द्वारा की गई उपासना से प्रसन्न होकर स्वयं भगवान शंकर ने वरदान मांगने को कहा, तब नरसिंह मेहता भगवान को कहते है कि आपको जो प्रिय हो वह दीजिए। भगवान शंकर ने स्वयं को प्रिय भगवान श्री कृष्ण की रासलीला उन्हें दिखाई और कहा भगवान कृष्ण की भक्ति करो।
 
   
इस प्रकार वे कृष्णमय हो परम वैष्णव बन गए। पूरा जीवन उन्होंने कृष्णभक्ति में बिताया। उन्होंने अपने जीवन में कृष्ण भक्ति करते करते हजारों की संख्या में पद-काव्य-भजन- प्रभातियां का निर्माण किया। उन्हीं के यह पद,भजन, कीर्तन,आख्यान इत्यादि आज भी इतने ही लोकप्रिय है और लोगों के जिवहा पर है, क्योंकि वे लोक हृदय में विद्यमान हैं। उनकी यह भक्ति रचनाएं मंगल प्रभात में लोग अचूक सुनते हैं। नरसिंह मेहता ने अपना ज्यादातर जीवन गिरनार पर्वत की तलहटी में बसे जूनागढ में व्यतीत किया।
 
 
   "ऐसे व्यक्ति जो अन्य की पीड़ा को समझते हैं और उस पीड़ा को दूर करने स्वयं कष्ट सहकर पीड़ित की पीड़ा दूर करते हैं और यह करने के बाद भी मन में किंचित मात्र भी अभिमान नहीं लाते, ऐसे लोगों को नरसिंह मेहता जी वैष्णव कहते हैं।"
यही बात काव्य के द्वारा नरसिंह मेहता कहते है,
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाने रे.
पर दु:खे उपकार करे तोय मन अभिमान ना आणे रे।
उनका यह भजन: "वैष्णव जन हो तो तेने रे कहिए...."
वैष्णव के गुणों को दर्शाता है। यह भजन गांधीजी को अति प्रिय था और आज तो यह विश्व पटल पर भी गूंज रहा है।
   
श्री नरसिंह मेहता समदृष्टा थे। वे किसी भी प्रकार के भेद को नहीं मानते थे। प्रकृति के सभी रूप में वे ईश्वर को ही देखते थे और यह बात आचरण के रूप में उन्हीं के जीवन में मूर्तिमंत हुई दिखाई ही देती हैं। उन्हीं का एक भजन जो एकात्म जीवन दर्शन को बहुत सही रूप से स्पष्ट करता है। यह है,...
अखिल ब्रह्मांड मां एक तुं श्रीहरि,जूजवे रुपे अनंत भासे;
देहमां देव तुं, तेजमां तत्व तुं, शून्यमां शब्द थई वेद वासे.
पवन तुं, पाणी तुं, भूमि तुं, भूधरा, वृक्ष थई फूली रहयो आकाशे;
विविध रचना करी अनेक रस लेवाने, शिव थकी जीव थयो ए ज आशे.
वेद तो एम वदे, श्रुतिस्मृति साख दे: कनक - कुंडल विशे भेद नोहोये;
घाट घडिया पछी नाम-रूप जूजवां, अंते तो हेमनुं हेम होये.
ग्रंथगरबड़ करी, वात न करी खरी, जेहने जे गमे। तेहेने पूजे;
मन कर्म वचनथी आप मानी लहे, सत्य छे ए ज मत एम सूझे.
वृक्षमां बीज तुं, बीजमां वृक्ष तुं, जोउं पटंतरो ए ज पासे.
भणे नरसैंयो ए मन तणी शोधना, प्रीत करूं,- प्रेमथी प्रगट थाशे.
(गुजराती साहित्य नो इतिहास, ग्रंथ:2, खंड:1, पृ.174)
    
उपरोक्त पद के द्वारा नरसिंह मेहता कहते हैं कि पूरे ब्रह्मांड यानी देह, तेज, वाणी, पवन, पानी, पृथ्वी, वृक्ष, इत्यादि चराचर सृष्टि अलग अलग दिखाते सभी में एक ही परम तत्व (ईश्वर) विद्यमान है। वेद और स्मृति का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि अनेक प्रकार के स्वर्ण आभूषण होते हैं, लेकिन उसमें एक ही तत्व होता है, वह है स्वर्ण। ऐसे ही सभी के रूप अलग-अलग है, पर उसमें एक ही ईश्वर विद्यमान है। और इस प्रकार वे संदेश देते हैं कि सभी में एक ही परम तत्व विराजमान है, यानी वे अद्वैत दर्शन का ज्ञान देते हुए- समानता, एकात्मता और बंधुता की बात बताते हैं।
 
 
जब उस समय समाज में जातपात के बंधन बहुत कड़े थे, तब भी नरसिंह मेहता ने उन जातिगत भेदभाव को अमान्य किया है। अपने इस उद्दात विचारों के कारण उनको अपने जीवन में अनेक सामाजिक कष्ट भी सहने पड़े, पर उन्होंने अपने यह समानता के विचारों को दृढ़ता के साथ निभाया और समाज में एक बड़ा सुधार लाने में वे सफल भी रहे और जीते।
ऐसी ही एक सामाजिक समस्या उनके जीवन में उल्लेखनीय है।
 
 
जब कुछ लोगों ने नरसिंह मेहता पर भ्रष्ट होने का आरोप लगाया, तब जूनागढ के रा' मंडलिक नरसिंह मेहता को कहते हैं कि तुम को श्री कृष्ण के साथ प्रीति है, यह बात उनके (श्री कृष्ण) के गले में रहा हार, स्वयं कृष्ण तुम्हें पहनाते हैं तो हम आपको निर्दोष मानेंगे। नरसिंह मेहता भगवान को पुकारते हैं और श्री कृष्ण का हार उनके गले में आ जाता है, यह साक्षात्कार मार्गशीर्ष सुद सप्तमी के शुभ दिन पर संपन्न हुआ था।
 
 
उनके जीवन का एक प्रेरणादाई प्रसंग है। जब वे दामोदर कुंड में स्नान कर अपने घर जा रहे थे, तब कुछ हरि भक्ति में दृढता वाले अनुसूचित जाति बंधु उन्हें अपने निवास पर भजन करने हेतु आमंत्रित करने आते है। तब उन बंधुओं को नरसिंह मेहता कहते हैं:
 
 
पक्षापक्षी त्यां नहीं परमेश्वर, समदृष्टिने सर्व समान.
गौमूत्र तुलसीवृक्ष करी लींपजो, एवुं वैष्णवे आप्युं वाक् दान.
(वही, पृ.137)
 
 अर्थात्: नरसी मेहता कहते हैं, जहां भेदभाव होता है, वहां परमेश्वर नहीं होते। जिनमें समदृष्टि है, उसके लिए सभी समान है। आपका निवास गोमूत्र और तुलसी वृक्ष से युक्त और स्वच्छ कीजिए, मैं आपके घर भजन करने आऊंगा।
 
 
महेताजी निशाए आव्या, लाव्या प्रसाद ने कर्यो ओच्छव.
भोर थया लगी भजन कींधुं, संतोष पाम्या सौ वैष्णव.
(वही, पृ.137)
अर्थात्: नरसिंह मेहता शाम को प्रसाद लेकर अनुसूचित जाति के बंधु के निवास पर पहुंच जाते हैं और उत्सव मनाते हैं। सुबह तक वहां भजन करते रहते हैं और सभी वैष्णव संतोष प्राप्त करते हैं।भजन करने के बाद जब नरसिंह मेहता अपने घर वापस जाते हैं, तब कुछ लोग उनका मजाक उड़ाते हैं और तालियां बजाकर कहते हैं, क्या यह है ब्राह्मण का रूप ?!!
 
 
नरसिंह मेहता उन अपने ही नागर समाज बंधुओ को उत्तर देते हैं:
 
 
नात न जाणो ने जात न जाणे, न जाणो कांई विवेकविचार.
कर जोडीने कहे नरसैंयो, वैष्णवतणो मने आधार.
(वही, पृ.137)
 
अर्थात्: हाथ जोड़कर विनम्र भाव से नरसिंह मेहता कहते हैं, आप विवेक विचार को नहीं जानते और जाती-पाती को जान ने का प्रयास न करें, मुझे तो वैष्णव का ही आधार है।
 
आगे वे कहते है,...
एवा रे अमो एवा रे तमे कहो छो वळी तेवा रेे.
भक्ति करतां जो भ्रष्ट कहेशो तो करशुं दामोदरनी सेवा रे.
(वही, पृ.137)
 
अर्थात्: वे कहते हैं मैं तो ऐसा ही हूं और आप जैसा कहोगें वैसा ही हूं, भक्ति करते करते जो आप मुझे भ्रष्ट भी कहते हैं, तो भी मैं दामोदर यानी कृष्ण की सेवा करता रहूंगा।
 
 
अंत में वे कहते हैं:-
 
 
हळवां कर्म नो हुं नरसैंयो, मुजने तो वैष्णव व्हाला रे.
हरिजनथी जे अंतर गणशे, तेना फोगट फेरा ठाला रे.
(वही, पृ.138)
 
अर्थात्: सरल कर्म करने वाला मैं हूं, मुझको तो वैष्णव प्यारे हैं, हरिजन के साथ जो अंतर रखेगा, उनका अवतार अर्थ हीन है।
 
 
समरसता को समझाते हुए वे कहते हैं:-
 
 
वस्तुनो सागर साव समरस भर्यो, अणछतो नरसईयो थइने माणे.
(वही, पृ.138)
 
अर्थात्: जब हम अच्छी लगती कोई वस्तु का दर्शन करते हैं और उस वस्तु में हम अपने को परिवर्तित कर देते हैं,उसे समरसता कहते हैं। जैसे उन्होंने गोपीभाव से कृष्ण की आराधना की और अंत में वे ऐसी स्थिति में आ गए कि वे गोपीभाव से मुक्त हो गए और वे स्वयं और कृष्ण एक हो गए।
 
नरसिंह मेहता विरल होने के साथ; सीधे-साधे, सरल और सहज है। आज भी ऐसे सीधे-साधे, सरल लोगों को नरसिंह मेहता का उपनाम दिया जाता है।भक्त कवि नरसिंह के कोई गुरु नहीं थे और न वे कोई पंथ के अनुयाई भी। उन्होंने स्वयं अपने विवेक-बुद्धि के बल पर और अनुभव के आधार पर अपने विचारों को काव्य रूप में प्रस्तुत कर भगवान कृष्ण की आराधना की और समाज का प्रबोधन किया है।
 
 
नरसिंह मेहता ने ही हरिजन शब्द का प्रयोग पहली बार कर पछात वर्ण को माने बहुमान दिया है,..
(गुजराती पुस्तक: नरसिंह मेहता के जीवन-स्मरण, संपादक - श्रीयुत बापुभाई जादवराय वैष्णव, पृ.77)
 
उस समय की कृष्णभक्ति में लीन कवियत्री मीराबाई ने नरसिंह मेहता के जीवन पर से "नरसिंहजी का माहयरा" काव्य की रचना की है। सिख गुरु नानकदेवजी ने गुरु ग्रंथसाहिब में नरसिंह मेहता का उल्लेख किया है। महाराष्ट्र के कवि जेठमल एवं भक्त कवि गोविंद स्वामी, राजस्थान के कवि ईश्वरदास और कबीर पंथ के धर्मदासजी ने अपने काव्यों में नरसिंह मेहता का उल्लेख अत्यंत आदर पूर्वक किया है।(नरसिंह मेहता गुजराती पुस्तिका, बालभारती पुस्तकश्रेणी, पृ.39)
 
 
नरसिंह मेहता भगवान को पुकारते हैं, तो सहयोग के लिए ही नहीं, भगवान से सहयोग प्राप्त कर वह समाज में ऐसा प्रतिपादित करना चाहते हैं कि भक्ति करने वाला कभी दुखी नहीं होता। भगवान भक्त के अधीन है। वे सहयोग अवश्य मांगते हैं, पर अपने लाभ के लिए नहीं, अपितु भक्ति की महत्ता बताने के लिए। जीवन में किसी भी प्रसंग पर उन्होंने भगवान के पास धन-संपदा, वैभव और दैहिक सुखाकारी की याचना नहीं की है, बस भक्ति ही मांगी है।
 
 
उनके पदों से इतनी बात स्पष्ट होती है कि मोक्ष से भी भक्ति उच्च है, सभी समान है, किसी में ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं करना चाहिए, भक्ति पाप का क्षय करती है, ईश्वर को प्रेम से मित्र भाव से स्मरण करें, ईश्वर पाने के लिए व्रत-उपवास या तीर्थाटन करने की जरूरत नहीं है, ईश्वर के शरण में रहना ही भक्ति है।