संत नामदेव जी और सामाजिक समरसता

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   भारत में चली मध्यकालीन भक्ति लहर में अध्यात्मिकता के साथ-साथ, सामाजिक समरसता के पथ प्रदर्शक के रूप में भगत नामदेव जी का नाम सुप्रसिद्ध संत कवि के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म 1270 में हुआ। इन के पिता का नाम दसशेटी और माता का नाम गुनाबाई था। जिला सतारा के परगना करहड के गांव नरसी बामणी (महाराष्ट्र) में ये परिवार रहता था। संत नामदेव जी का नाम विट्ठल भक्तों में सर्वोपरि माना जाता है। इनके गुरु का नाम विशोवा खेचर था। संत नामदेव जी मध्यकालीन भारत के उस नव जागृति लहर के अग्रणीयों में रहे, जिन्होंने हिंदू समाज को जाति प्रथा और आडंबर युक्त कर्मकांड से मुक्त करवाने के लिए जनसाधारण को मुक्ति का संकल्प प्रदान किया। यह प्रयास सामाजिक परिवर्तन में क्रांतिकारी पहल के रूप में जाना जाता है। इनकी रचनाएं बहुतायत में मराठी भाषा में अभंगों के रूप में मिलती हैं। हिंदी पदों में भी इनकी रचनाएं उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त गुरमुखी लिपि में इनके 61 शब्द 18 रागों में श्री गुरु ग्रंथ साहब में भी पाए जाते हैं।
संत नामदेव जी का जन्म तथाकथित निम्न जाति छीपा में हुआ। इस जाति के लोग कपड़े सीने और उन को रंगने का काम करते थे।
 
रांगनी रांगऊ सीवनी सीवऊ।
राम नाम बिनु घडी न जीवऊ।
( राग आसा, अंग 485)
अर्थात कपड़ों की रंगाई भी करता हूं, उनको रंगता भी हूं, परंतु राम के नाम बिना एक घड़ी भी जी नहीं पाता हूं।
 
आलावंती एहो भ्रम जो है मुझ ऊपरि सब कोपिला।
सुद सुद करि मारि ऊठाइऔ कहा करऊ बाप बीठुला
(राग मल्हार, अंग 1292)
( इन पंडितों मैं जो यह भ्रम है कि हम मंदिर वाले हैं, इसलिए यह सब मेरे ऊपर क्रोध कर रहे हैं। शूद्र शूद्र कह के मुझे उठा दिया, हे पिता विट्ठल अब मैं क्या करूं)
 
तेहरवीं, चोहदवीं शताब्दी में समाज के अंदर वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत जातिगत भेदभाव छुआछूत का प्रचलन बहुत ज्यादा था। समाज को जन्म की जाति के आधार पर बांटा गया था। उच्च श्रेणी के लोगों द्वारा शूद्रों के साथ बहुत भेदभाव किया जाता था। शुद्र राजसत्ता में भाग नहीं ले सकते थे, उन्हें मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था और उन्हें भगवान की भक्ति भी नहीं करने दी जाती थी। समाज में स्थापित वर्ण व्यवस्था के कारण ऊंची और नीची जाति के अंतर ने धर्म के क्षेत्र में भी भक्तों के अंदर हीन भावना उत्पन्न कर दी थी। दलित जाति से संबंधित भगत अपने मन में अपनी नीची जाति को कोसने लगे थे। एक घटना के अनुसार नामदेव जी जब प्रभु प्रेम में विट्ठल जी की मूर्ति के आगे कीर्तन कर रहे थे, तो धर्म के ठेकेदार पुजारियों ने इनको भक्ति करने से रोका और बांह से पकड़ कर बाहर निकाल दिया। तब इनके मन में ब्राह्मणों के प्रति नफरत के साथ-साथ अपनी नीची जाती के प्रति भी रोष पैदा हो गया।
 
हसत खेलत तेरे देहरे आइया।
भक्ति करत नामा पकरि उठाया।
हीनडी जात मेरी जादिम राइया।
छीपे के जन्मि काहै कउ आइया।
(राग भैरउ, अंग 1164)
( नामदेव हंसता खेलता तेरे द्वार पर आया। भक्ति करते हुए को एक ब्राह्मण ने पकड़ा और उठा दिया क्योंकि मैं नीचे जाति का हूं, हे कृष्ण ! मेरा जन्म छींबे के घर में क्यों हुआ)
 
संत नामदेव जी, प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर जी के समकालीन थे। संत ज्ञानेश्वर जी महाराष्ट्र के सिद्ध संप्रदाय से संबंधित थे। संत ज्ञानेश्वर जी के प्रभाव के कारण संत नामदेव जी पर वारकरी संप्रदाय का काफी प्रभाव था। वारकरी संप्रदाय के मुख्य सिद्धांतों में त्याग, सादगी, दया, अहिंसा, प्रेम, शूद्र और स्त्रियों के हितों का ध्यान रखना शामिल था । ऐसा माना जाता है कि दलित चेतना का आरंभ वारकरी संप्रदाय से ही हुआ।
 
मन मेरो गजु जिहबा मेरी काती।
मपि मपि काटऊ जम की फासी।
कहा करऊ जातीकहा करऊ पाती।
राम का नाम जपऊ दिन राती।
(राग आसा, अंग 485)
( मैं मन रूपी गज और जीभ रूपी कैंची से नाप नाप कर जम की फांसी को काट रहा हूं। मुझे जात पात की कोई परवाह नहीं है, मैं तो राम के नाम का ही दिन रात जप कर रहा हूं।)
 
ऐ पंडिआ मै कऊ ढेढ कहत तेरी पैज पिछंऊडी होईला। ( राग मलहार, अंग 1292)
(हे पांडे मुझे ढेढ (नीच) कहने से तेरा ही सम्मान पीछे पडता है अर्थात कम होता है)
 
मध्यकाल में समाज में वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत ब्राम्हण की संतान को उसके गुणों की परख किए बगैर ही, केवल उसकी जाति के आधार पर ब्राह्मण (विद्वान) मान लिया जाता था। इसी प्रकार शूद्र की संतान को केवल शूद्र जाति में जन्म लेने के कारण ही उसे सेवादार (नीच) मान लिया मान लिया जाता था। समाज में इस व्यवहार के कारण ही हमारा समाज कमजोर हो गया। दलित श्रेणी के लोग इस जातिभेद के चलन को मन मार कर स्वीकार करने के लिए मजबूर थे। जात पात पर आधारित यह विषमता का व्यवहार भारत में काफी लंबे समय से दिन प्रतिदिन परिपक्व होता चला गया। समाज की व्यवस्था गुण आधारित ना होने के कारण धर्म और दर्शन में यह खाई गहरी होती चली गई। धर्म अपने सिद्धांतों और मान्यताओं की जगह कुछ रूढ़ीवादी सामाजिक परंपराओं के बंधन में बंध चुका था। उभर रही इस सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था के विरोध में देश के कोने कोने से भारत के संतो ने अपने अपने स्थान पर प्रयास करने शुरू कर दिए थे और ये प्रयास एक आंदोलन का रूप ले चुके थे। इस लहर को भक्ति लहर के रूप में जाना जाता है। उस समय के संतो ने इस जातिगत विषमता फैलाने वाले उन धर्म और समाज के ठेकेदारों के विरोध में आवाज उठानी शुरू कर दी जो तथाकथित निम्न जाति को सम्मानजनक स्थान देने से इंकार करते थे। परंतु संतो द्वारा किए जा रहे इस विरोध कीएक विशेषता थी यह विरोध अहिंसक था।
 
    संत नामदेव जी ने भी जन्म आधारित जाति व्यवस्था का खंडन किया है। नामदेव जी और बाकी सभी भगत जन हिंदू धर्म और हिंदू समाज से किसी भी रूप में बागी होने की बजाय समाज को अपनी वाणी, कर्म, प्रवचन आदि द्वारा सुधारने के लिए परिवर्तनशील दिखाई दे रहे थे। उस समय की एक घटना इस प्रकार आती है कि संत नामदेव जी बीदर के एक ब्राह्मण के बुलाने पर कीर्तन करने के लिए संत मंडली के साथ भजन करते हुए जा रहे थे। बीदर के बादशाह ने अपने वजीर को हुकुम दिया कि नामे को पकड़कर दरबार में लाया जाए। बादशाह ने संत नामदेव जी से कहा अगर तू परमात्मा का भगत है तो इस मरी हुई गऊ को जीवन देकर दिखा। इस घटना के बारे श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में राग भैरव में एक शब्द है... "सुल्तान पुछे सुन बे नामा। देखऊ राम तुम्हारे कामा।" ( राग भैरव, नामदेव जिओ, अंग 1166)। संत नामदेव जी के लिए मरी हुई गऊ को जीवन देना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। उनके आगे शर्त रखी गई कि अगर गऊ जीवत न हुई तो नामदेव जी को इस्लाम धर्म अपनाना पड़ेगा। उस समय संत नामदेव जी की धर्म के प्रति उनकी निष्ठा की हो रही परीक्षा को देखकर उनकी मां ने कहा कि वह राम का नाम छोड़कर खुदा का नाम जपना शुरू कर दे। मगर नामदेव जी को यह स्वीकार नहीं था। तब नामदेव जी की जिद को बचाने के लिए भगवान विष्णु जी ने बैकुंठ से आकर मरी हुई गाय को जीवित किया। इस घटना से यह बात सिद्ध हुई की संत नामदेव जी ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने की बजाय हिंदू धर्म मैं अपने आस्था दृढ़ होने का प्रमाण दिया। यद्यपि संत नामदेव जी जाति आधारित विषमताओं के कारण हिंदू धर्म मैं व्याप्त कुरीतियों से पीड़ित थे फिर भी उन्होंने अपने हिंदू धर्म पर दृढ़ता दिखाई और इसलाम को स्वीकार करने से मना कर दिया। संत नामदेव जी ने ब्राह्मणी आडंबरों के विरोध में स्वयं भी आवाज उठाई और जनसाधारण को भी इसके प्रति विरोध में आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया। इनकी इस विचारधारा ने मनुष्यों में एक नई भावना का संचार किया। इसके साथ ऐसी वर्ण व्यवस्था के होते हुए भी हिंदू समाज के लोगों को मुसलमान शासकों की तरफ से धर्म परिवर्तन के दवाब को बर्दाश्त करना भी सिखाया।
 
सभु गोबिंद है, सभु गोबिंद है,गोबिंद बिनू नहीं कोई।
सूतु एक मणि सत सहंस जैसे उति पोति प्रभु सोई।
(राग आसा, वाणी श्री नामदेव जी की, अंग 485)
( सब में निरंकार है सब में निरंकार है। निरंकार के बिना कोई नहीं। जैसे माला में सैकड़ों और हजारों मनके होते हैं पर धागा एक ही होता है उसी प्रकार सभी शरीरों में वही निरंकार है। )
 
नामदेव जी के कहने का क्या भाव है कि प्रत्येक प्राणी के अंदर परमपिता परमात्मा का वास है। इसमें जात पात का कोई भेद नहीं है। जब सबके अंदर वही परमात्मा चेतन अंश के रूप में विराजमान है तो जात-पात के आधार पर कोई ऊंचा या नीचा कैसे हो सकता है।
इस प्रकार संत नामदेव जी की वाणी में जातिगत भेदभाव को मान्यता देने वाले संस्थापक राजाओं और धर्म के ठेकेदारों द्वारा प्रचलित दुराचारी नीतियों का डटकर विरोध हुआ है। संत नामदेव जी तथाकथित ऊंची जात वाले ब्राह्मणों को एक उदाहरण देकर समझाते थे कि जिस प्रकार अलग-अलग रंगो वाली गऊओं का दूध एक जैसा होता है, उसी प्रकार अलग-अलग रंग, रूप और जाति वाले लोगों में भी बाहरी भिन्नता दिखाई दे सकती है परंतु आत्मतत्व के आधार पर सब समान हैं। इस दृष्टिकोण से तथाकथित ऊंची जाति और नीची जाति के लोगों में भेद करना गलत है। उन्होंने बताया की अध्यात्मिक गुरु भी शिष्यों को जाति की परवाह किए बिना सबको समान रूप से अपनाते हैं। नामदेव जी अपने सतगुरु श्री विशोवा खेचर जी प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते हुए कहते थे कि नामदेव रूपी छींबे ने अपने मन की सुई और तन के धागे के साथ अपने आप को गुरु के चरण कमलों में सी लिया है।
 
नाना बरण गवा उनका एक बरण दूध।
तुम कहाँ के ब्रहमन हम कहां के सूद।
मन मेरी सूई तन मेरा धागा।
खेचर जी चरण पर नामा सिद्धी लागा।
(नामदेव जी की हिन्दी पदावली, पद 184)
 
इसी प्रकार श्री गुरु अमर दास जी ने भी संत नामदेव जी के इस भाव पर अपनी मोहर लगाई है।
नामा छींबा कबीर जुलाहा पूरे गुर ते गति पाई।
(श्री राग, अंग 67 मः 3) 
( छींबा जाति के नामदेव जी और जुलाहा जाति के कबीर जी, पूर्ण गुरु से मिलने के कारण परम गति पा गए।)
 
अर्थात परमात्मा से मिलने के लिए जाति कोई रुकावट नहीं है। संत नामदेव जी के जीवन काल में राजसी उथल-पुथल के साथ-साथ सारा समाज जात-पात के आधार पर बंटा हुआ था। संत नामदेव जी सामाजिक और धार्मिक उत्तमता को जन्म के आधार पर मानने के पक्ष मे नहीं थे। इन्होंने अपने कर्म और व्यवहार के द्वारा जो मार्ग अपनाया, उस पर चलते हुए जो उत्तमता या परमात्मा की निकटता को प्राप्त किया उसका वर्णन श्री गुरु रामदास जी ने किया है
 
नामदेव प्रीति लगी हरि सेती, लोकु छीपा कहे बुलाई ।
खत्री ब्राह्मण पिठि दे छोडे, हरि नामदेव लिया मुखि लाई । (राग सूही, अंग 733 मः 4)
 
सामाजिक समरसता की दृष्टि से संत नामदेव जी ने अपनी वाणी में तत्कालीन समाज की सामाजिक दशा का वर्णन किया है। इन्होंने अपनी वाणी में धार्मिक प्रसंग में गैर जरूरी धारणायों को समाप्त करने के लिए आवाज उठाई। संत नामदेव जी ने अपनी वाणी में भावनात्मक आधार बनाने का प्रयत्न किया और संदेश दिया की हर एक प्राणी के अंदर चेतन तत्व एक ही है, वह पूर्ण रूप से सबके अंदर समान रूप मे है। समाज में मनुष्य के अंदर जाति आधारित विषमताएं अर्थहीन है। संत नामदेव जी द्वारा दिखाए गए मार्ग की रोशनी में उनके भावनात्मक संदेश को व्यवहारिक रूप में लागू करके, जात-पात के आधार पर सामाजिक विषमताओं को समाप्त किया जा सकता है और समरस समाज की स्थापना की जा सकती है।
 
श्री दविंदर शर्मा जी