हिंदु संस्कृति को जगत की सर्वश्रेष्ठ और कल्याणकारी विचारधारा बनाने में सहायक रहें भारत के जितने भी दार्शनिक, तत्त्वज्ञ अथवा संतश्रेष्ठ हुए हैं, उनमें श्रीमद् आदिशंकराचार्यजी का नाम सबसे ऊपर रहेगा। आदिशंकराचार्यजी की अनेक रचनाएँ आज उपलब्ध हैं। उनमें मुख्यत: दो प्रकार की रचनाएँ दिखती हैं। उनमें एक तो तत्त्वज्ञानपरक ग्रन्थ हैं, जिनमें भगवद्गीता, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र आदि प्रस्थानत्रयी के भाष्य तथा विवेकचूड़ामणि जैसे ग्रन्थ हैं। और दूसरे भक्तिरस से ओतप्रोत स्तोत्र अथवा ग्रन्थ हैं।
इनमें पहले प्रकार के ग्रन्थों का विषय अद्वैत वेदांत के ज्ञानमार्ग का परिचय, विवरण, मंडन तथा अन्य मतों का खंडन है। वे बड़े गंभीरतापूर्ण, युक्तियुक्त तथा आदिशंकरजी की प्रौढ़ विद्वत्ता के अत्यंत परिचायक हैं। पर्वतों में उगम होकर निकलनेवाला और पथ में आकर मिलनेवाले जलस्रोतों से पुष्ट एवं बलशाली होकर तीव्रगति से आगे बढ़नेवाला प्रचंड जलप्रपात जिस तरह से अपने मार्ग में आनेवाले हर एक कठिन प्रस्तर को भी चूर चूर कर देता है, उसी प्रकार आदिशंकरजी की युक्तियुक्त वाणी अत्यंत दुरापास्त लगनेवाले अन्य मतों को भी चूर चूर कर उखाड़ फेंक देती है। इन ग्रंथों को पढ़नेवाला कोई अभ्यासक ज्ञानमार्ग के इस अद्वैत वेदान्त की कल्याणकारी विचारधारा का अनुयायी ना बनें, यह हो ही नहीं सकता। आज के हिंदुधर्म की नींव में आदिशंकरजी का यही अद्वैत वेदान्त विचार भारत के विभिन्न दर्शन और मतों के साथ विद्यमान है, इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता।
परन्तु दूसरे प्रकार के जो भक्तिपूर्ण ग्रन्थ हैं, उनकी शैली इनसे बिलकुलही अलग है। भक्तिरस से ओतप्रोत ये ग्रन्थ एक भक्त के मन की अत्यंत व्याकुलता को प्रकट करते हुए ईश्वर के चरणों में लीन करा देते हैं। अत्यंत कठिन प्रस्तर को भी चूर चूर कर देनेवाला वही प्रचंड जलप्रपात जैसे ही समुद्र के निकट आता है, उसके ओघ की प्रचंड शक्ति एकदमसे शान्त हो जाती है। इस तरह से शान्तचित्त और संयत होकर वह स्वयं को समुद्र की गहराईयों में विलीन कर देता है। यही अनुभूति दिलानेवाले ये सारे स्तोत्र एवं भक्तिग्रन्थ पाठक को ईश्वर में उसी तरह से विलीन कराने की क्षमता रखते हैं। संस्कृत काव्यशास्त्र में वर्णित सभी गुणों से युक्त तथा विभिन्न अलंकारों से सज्जित शंकरजी की यह अद्भुत वाणी एक भक्त को प्रभुचरणों के शरण में लाकर ही विराम लेती है।
और क्या विशेषता है आदिशंकरजी के वाणी की? ईश्वरद्वारा निर्मित सभी प्राणिमात्र और मनुष्यमात्रों को समान दृष्टि से देखने का कथन। लीजिये एक उदाहरण देखते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता का एक श्लोक है – विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।। भगवद्गीता 5.18 ।। अर्थात् “विद्या और विनय से सम्पन्न कोई ब्राह्मण हो, या फिर कोई गाय हो, हाथी हो, कुत्ता हो, या फिर कोई चाण्डाल भी क्यों न हो - ज्ञानी जन इन सभी में समान तत्त्व को देखते हैं।” यह हो गयी स्वयं भगवान की कही बात। अब इसपर लिखे भाष्य में आदिशंकर क्या कहते हैं? विद्याविनयसंपन्ने विद्या च विनयश्च विद्याविनयौ विद्या आत्मनो बोधो विनयः उपशमः ताभ्यां विद्याविनयाभ्यां संपन्नः विद्याविनयसंपन्नः विद्वान् विनीतश्च यो ब्राह्मणः तस्मिन् ब्राह्मणे गवि हस्तिनि शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः। विद्याविनयसंपन्ने उत्तमसंस्कारवति ब्राह्मणे सात्त्विके मध्यमायां च राजस्यां गवि संस्कारहीनायाम् अत्यन्तमेव केवलतामसे हस्त्यादौ च सत्त्वादिगुणैः तज्जैश्च संस्कारैः तथा राजसैः तथा तामसैश्च संस्कारैः अत्यन्तमेव अस्पृष्टं समम् एकम् अविक्रियं तत् ब्रह्म द्रष्टुं शीलं येषां ते पण्डिताः समदर्शिनः।। भगवद्गीता शांकरभाष्य 5.18 ।। अर्थात् “विद्या अर्थात् आत्मबोध और विनय अर्थात् उपरामता इन दोनों गुणों से सम्पन्न जो विद्वान् और विनीत ब्राह्मण है, उस ब्राह्मण में, गौ में, हाथी में, कुत्ते में और चाण्डाल में भी पण्डितजन समभाव से देखते हैं। अभिप्राय यह है, कि उत्तम ऐसे संस्कार युक्त विद्याविनय सम्पन्न सात्त्विक ब्राह्मण में, मध्यम ऐसे संस्कार रहित रजोगुण युक्त गौ में और कनिष्ठ ऐसे अतिशय मूढ़ केवल तमोगुण युक्त हाथी आदि में सत्त्वादि गुणों से और उनके संस्कारों से तथा राजस और तामस संस्कारों से सर्वथा ही निर्लेप रहनेवाले ऐसे वे और एक निर्विकार ब्रह्म को देखना ही जिनका स्वभाव है ऐसे वे पण्डित समदर्शी हैं।” केवल इतना ही कहकर आदिशंकर रुकते नहीं। आगे चलकर वे कहते हैं, निर्दोषं यद्यपि दोषवत्सु श्वपाकादिषु मूढैः तद्दोषैः दोषवत् इव विभाव्यते, तथापि तद्दोषैः अस्पृष्टम् इति निर्दोषं दोषवर्जितं हि, यस्मात् नापि स्वगुणभेदभिन्नम् निर्गुणत्वात् चैतन्यस्य ।। भगवद्गीता शांकरभाष्य 5.19 ।। अर्थात् “यद्यपि मूर्ख लोगों को चाण्डालादि में उनके दोषों के कारण आत्मा दोषयुक्तसा प्रतीत होता है, तो भी वास्तव में वह आत्मा उनके दोषों से निर्लिप्त ही है। चेतन आत्मा निर्गुण होने के कारण अपने गुण के भेद से भी भिन्न नहीं है।”
संक्षेप से इसका अर्थ यह हुआ, कि कोई प्राणी सात्त्विक गुणों से पूर्ण हो, या राजस या फिर तामस गुणों से पूर्ण हो, सभी प्राणियों में समान दृष्टि रखनेवाले ज्ञानी जन उन सब को समान दृष्टि से ही देखते हैं। क्यों की उन सब की आत्मा एक ही है, ऐसा वे मानते हैं। केवल मूर्ख लोग ही तामसिक आदि प्राणियों में दोष मानते हैं, क्यों की चेतन आत्माका किसी भी दोषों से निर्लिप्त स्वरूप वे नहीं जानते। मनुष्यों के उपरी भेदों को देखकर उनको भिन्न और दोषयुक्त माननेवाला आदमी कोई मूर्खही हो सकता है। सभी जीवों में एक ही ब्रह्म देखने की यह बात शंकरजी ने अपने सभी दार्शनिक ग्रंथों में जगह जगहपर की है। जब वेदान्त की ऐसी तत्त्वचर्चा में सभी जीवों में एक ही ब्रह्मतत्त्व बतलाया जाता है, तब मनुष्य-मनुष्यों में भेद कैसा? आदिशंकर ने सींचा हुआ अद्वैतधारा का यही पौधा आज के हिंदुधर्म में सभी जीवों को समान दृष्टि से देखने की सीख देनेवाले विचारवृक्ष में परिणत हुआ है। ‘हिंदु सदा से विश्वबंधु है, जड़-चेतन अपना माना है, मानव-पशु-तरु-गिरि-सरिता में एक ब्रह्म को पहचाना है।’
इनमें से कुछ कुछ जगहों पर मूल ग्रंथ में ‘ब्राह्मण’ शब्द आता है, जो वहाँ किसी जातिविशेष या फिर वर्णविशेष का बोधक नहीं होता, परन्तु ‘ब्रम्हतत्त्व की साधना करनेवाला अथवा ब्रह्म को जाननेवाला साधक’ ऐसे उपलक्ष्य में आता है। यह पहलू भी शंकरजी के भाष्य में स्पष्ट हो जाता है। उदाहरण के लिए देखते हैं - यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।। भगवद्गीता 2.46 ।। इस श्लोक के भाष्य में ‘ब्राह्मण’ शब्द की व्याख्या करते हुए शंकरजी कहते हैं – ‘ब्राह्मणस्य संन्यासिनः परमार्थतत्त्वं विजानत:’ अर्थात् “जो संन्यासी ब्रह्मतत्त्व का साधक है और उस परमार्थतत्त्व को जानता है, वह ब्राह्मण है”। या फिर – तस्माद्ब्राह्मण: पाण्डित्यं निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेत्। बाल्यं च पाण्डित्यं च निर्विद्याथ मुनिः। अमौनं च मौनं च निर्विद्याथ ब्राह्मण: ।। बृहदारण्यक उपनिषद् 3.5.1 ।। अर्थात् “अत: ब्रह्म को जाननेवाला साधक पाण्डित्य का पूर्णतया संपादन कर आत्मज्ञान के बल से स्थित रहने की इच्छा करें, फिर उस बल और पाण्डित्य को संपादन कर मुनि बनें, फिर अमौन और मौन का संपादन कर के वह कृतकृत्य होता है।” इसके भाष्य में भी शंकरजी ‘ब्राह्मण’ शब्द के लगभग इसी अर्थ को दर्शाते हुए कहते हैं – ब्राह्मणो ब्रह्मविद् अर्थात् “जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्राह्मण है”। इस तरह से तत्त्वज्ञान की चर्चा करनेवाले ऐसे ग्रंथों में सामान्य पाठकों के मन में वर्णवाद या जातिवाद का भ्रम निर्माण करनेवाले शब्दों को भी आदिशंकर यथार्थरूप से समझाते हैं।
दूसरे भक्तिरस से पूर्ण जों स्तोत्र और अन्य ग्रन्थ हैं, उनमें भी इस तरह का विचार जगह जगह पर दिखता है, जिसमें आदिशंकर ने मनुष्यों के भेदों को निरस्त कर उनमें एकत्व का ही पुरस्कार किया है। उनका रचा ‘मनीषापञ्चकम्’ नामक एक लघुस्तोत्र है, जिसको लेकर आदिशंकर के वर्णभेदविषयक मत के ऊपर कुछ लोग प्रश्न उठाते हैं। एक दिन वाराणसी में आदिशंकरजी गंगास्नान करके भगवान श्रीविश्वेश्वरजी के दर्शन के लिए जा रहें थे। तब मार्ग में एक तथाकथित चांडाल सामने आया, तो उसको उन्होंने ‘गच्छ गच्छ’ (दूर जाओ) कहा। तो उसपर उस चांडाल ने शंकरजी से कुछ प्रतिप्रश्न किये कि, आप किसे किससे दूर जाने के लिए कह रहे हैं? अन्न से निर्मित एक देह को दूसरे देह से दूर जाने के लिए, या फिर एक चैतन्यमय तत्त्व को दूसरे चैतन्यमय तत्त्व से दूर जाने के लिए? आकाश में स्थित सूर्य का प्रतिबिम्ब गंगाजी के जल में और किसी चांडाल की कटोरी में भरे पानी में जिस तरह से एक जैसा ही दिखता है, उसी तरह एक ही आत्मतत्त्व से भरे एक द्विज और एक चांडाल में आप भेद क्यों कर रहें हैं? यह सुनकर उन्होंने उस चांडाल की योग्यता को समझकर अपने जो विचार प्रकट किये, वहीँ ‘मनीषापञ्चकम्’ नाम से प्रख्यात हैं।
उसमें वे कहते हैं - जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु स्फुटतरा या संविदुज्जृम्भते, या ब्रह्मादिपिपीलिकान्ततनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी । सैवाहं न च दृश्यवस्त्विति दृढप्रज्ञापि यस्यास्ति चेत्, चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ।। मनीषापञ्चकम् – 1 ।। अर्थात् "जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ती इन तीनों अवस्थाओं में भी सदा व्यक्त होनेवाला बोध का जो शुद्ध रूप है, वही जो ब्रह्मदेव से लेकर चींटीयों तक सबके शरीरों को व्याप्त करनेवाला है, जो पूरे विश्व का साक्षी है, वह ज्ञान मुझ से अलग कोई दूसरी देखनेलायक वस्तु नही है, अपि तु वही स्वयं मैं हूँ", ऐसी जिसकी अवधारणा पक्की हो, ऐसा मेरा गुरु हो। फिर चाहे वह कोई चाण्डाल ही हो, या फिर कोई द्विज (ब्राह्मण / क्षत्रिय / वैश्य) हो। यही मेरी इच्छा है।” इसमें अतिशय स्पष्ट रूप से गुरुत्व के बारे में वे अपने विचार दर्शाते हैं। जो ज्ञानी व्यक्ति स्वयं बोध-स्वरूप हो चुका हो, वही मेरा गुरु बनें, फिर चाहे वह किसी भी जाति अथवा वर्ण का क्यों न हों। एक चांडाल और एक द्विज को समान दृष्टि से देखनेवाले जिस प्रज्ञानघन विभूति के मन में इस तरह के विचार हों, उसपर वर्णभेद का मिथ्यारोप भला कैसे सिद्ध हो सकता है?
वर्ण और जाति से उपर उठकर सभी प्राणियों में एक ही मूलतत्त्व को देखने का लगभग यही भाव फिर दूसरे जगह भी दिखता है – नाहं मनुष्यो न च देवयक्षौ न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः। न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो भिक्षुर्न चाहं निजबोधरूपः ।। हस्तामलकस्तोत्रम् – 2 ।। अर्थात् “मैं ना मनुष्य हूँ, ना कोई देव, ना ही कोई यक्ष हूँ। मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र में कोई भी नहीं हूँ। मैं ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी, संन्यासी में भी कोई नहीं हूँ। मैं तो स्वयं को जानकर उस रूप से एकत्व को प्राप्त हुआ ज्ञानरूप हूँ।” अथवा और भी - न मृत्युर्न शङ्का न मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता च जन्म। न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ।। निर्वाणषट्कम् – 5 ।। अर्थात् “मैं न मृत्यु हूँ, न मेरा कोई जन्म है, मेरा कोई जातिभेद नहीं है, मेरा कोई पिता नहीं, कोई माता नहीं, कोई बन्धु नहीं, कोई मित्र नहीं, ना ही मेरे कोई गुरु या शिष्य हैं। मैं तो चिदानन्दरूप शिव हूँ, शिवस्वरूप हूँ।”
वर्ण के भेद हो, आश्रम के भेद हो, या फिर जाति के भेद - मनुष्यनिर्मित किसी भी भेद को ना मानकर उनमें केवल मूलगामी तत्त्व को ही देखने की सम्यग्दृष्टि उन्होंने प्राप्त की थी। यह तो समरसता की और एकत्व दर्शन की परमावधि हो गयी। इसीलिए यह हिंदु संस्कृति आज श्रीमद् आदिशंकराचार्य की कृतज्ञ है, जिन्होंने अपने कठोर परिश्रम, अपार विद्वत्ता और असीम भक्ति से इसकी नींव डाल दी है।