'रामोशी' यह एक राज्य करनेवाली जनजाति थी। उनकी बस्तियां 'बेरड़' संस्थान 'सुरापुर' इस प्रसिद्ध स्थान में थी। विजयनगर साम्राज्य और छत्रपति शिवराय के स्वराज्य में रामोशी समाज के वीर पुरुषों के योगदान की अनेक प्रविष्टियाँ असली दस्तावेजों में पढ़ने को मिलती हैं। छत्रपति शिवराय और छत्रपति संभाजी महाराज के काल में दिया गया योगदान सभी को ज्ञात है। शांत स्वभाव के ये लोग खेती तथा खेती से जुड़े हुए व्यवसाय करते हुए रखवालदारी का काम कर गाँव को सुरक्षितता प्रदान करते थे। ऐसी उज्ज्वल परंपरा पाने वाले 'रामोशी' समाज में उमाजी नाईक होकर रहे।
राजा उमाजी नाईक पर हमने 'मोदी' और 'अंग्रेजी' भाषा के दस्तावेजों के दो ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं। एक गर्व की बात यह है की राजा उमाजी नाईक के कार्य पर प्रकाश डालनेवाले लगभग 1200 से 1500 मूल दस्तावेज महाराष्ट्र सरकार के पुरालेखागार विभाग में उपलब्ध हैं। केवल 8 से 10 वर्ष के क्रांति कार्य पर इतनी बड़ी मात्रा में ऐतिहासिक दस्तावेज प्राप्त होना एक दुर्लभ बात है। मोड़ी भाषा में लिखे हुए कुछ पत्र 25 से 30 पृष्ठ के हैं। इतनी बड़ी मात्रा में दस्तावेज रखना किसी और क्रांतिकारक के विषय में भी है ऐसा लगता नहीं है। विशेष बात यह है की उमाजी नाईक के क्रांतिकारी की नोट लेकर ब्रिटिश पार्लियामेंट ने स्वतन्त्र रूप से प्रशासन और सैन्य प्रणाली की रचना की थी। कॅप्टन मैन्सफील्ड, कॅप्टन डेविस,कॅप्टन स्पिलर, कॅप्टन लुकेड़, कॅप्टन बॉईड, कॅप्टन पाइप, कॅप्टन किंग्स्टन, कॅप्टन लिविंग्स्टन, कर्नल स्मिथ, लेफ्टनंट हार्टले, लेफ्टनंट मॅकन, लेफ्टनंट फुलरटन , लेफ्टनंट शॉ, लेफ्टनंट फोब्स, लेफ्टनंट क्रिस्टोफर, लेफ्टनंट लॉईड , लेफ्टनंट क्लार्क, लेफ्टनंट लॉग , मजिस्ट्रेट रॉबर्ट्सन, कलेक्टर गीबर्न जैसे चालाक और राजनायिक लष्करी और प्रशासकीय अधिकारीयों के नेतृत्त्व में राजा उमाजी नाईक के बंदोबस्त के लिए अभियान चलाये गए। जिनके साम्राज्य पर सूर्यास्त नहीं होता था ऐसे अत्यधिक, विस्तारित और आधुनिक शास्त्र तथा शास्त्रों से युक्त ऐसे साम्राज्यवादियों को राजा उमाजी नाईक को काबू में लाना संभव नहीं हो रहा था। आखिर में, कॅप्टन मैकिंटोश के नेतृत्त्व में साम, दाम, दंड के साथ भेद निति का अवलम्ब करके उनको पकड़ा गया।
महान विद्रोह का प्रारंभ
इस देश के कई राजा तथा सरदारों ने ब्रिटिशों का स्वामित्त्व स्वीकार किया था। ऐसा होते हुए भी राजा उमाजी नाईक ने ब्रिटिश विदेशी हैं और उन्होंने वापस जाना चाहिए इसलिए उनका विरोध किया। ब्रिटिश और ब्रिटिशों के साथ लड़नेवाले लोगों के विरोध में उन्होंने देश के लोगों को, हाथ में शस्त्र लेते हुए इकट्ठा करने के निर्देश दिए। अपने बुद्धिचातुर्य से जेल को भी उन्होंने स्कूल में परिवर्तित किया था। ब्रिटिशों के विरुद्ध क्रांति कार्य करने के कारण जेल में रहते हुए उन्होंने अक्षरों का अभ्यास कर स्वयं को साक्षर किया था। सन 1824 में भाम्बुरड़ा के ब्रिटिश खजाने पर हमला बोल उन्होंने रुपये 6200/- इतनी बड़ी रकम हस्तगत की थी और अपने पहले विद्रोह में यश संपादन किया था। इसके बाद उन्होंने ब्रिटिशों को अनेक मोर्चों पर जबरदस्त थप्पड़ लगाई थी। पुणे, सातारा, कुलाबा, रत्नागिरी, ठाणे ऐसी जगहों पर अपना बड़ा दबदबा बनाया। कोकण प्रांत में उतारकर उन्होंने ब्रिटिशों के समर्थक व्यापारियों से पैसा वसूला तथा वहां के अधिकारीयों को सारा वसूला पैसा हमें दिया जाय ऐसी चेतावनी दी।
स्त्रीत्व का सम्मान
राजा उमाजी नाईक के सामने छत्रपति शिवजी महाराज का आदर्श था। शिवाजी की तरह पुनः स्वराज्य स्थापन करने की उनकी महत्त्वाकांक्षा थी। वे प्रजा के लिए एक आशास्थान बने थे। शिवाजी महाराज के आदर्शवत गुणों का परिचय उन्होंने भी दिया। शिवाजी की तरह वे भी महिलाओं का सम्मान करते थे। धन पाने के लिए उन्होंने अपने सहकारियों समेत रायमा इनामदार की पत्नी की हत्या करने को नाकारा था। इसके लिए उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी लेकिन स्त्री हत्या का पाप नहीं किया। वैसेही अपने जिगरी दोस्त बापू चव्हाण की बहन को सती जाने से रोका था। पुलिस अधिकारी अन्नाजी पर तलवार चलाते समय उनकी पत्नी आड़े आई। तब उन्होंने स्त्री हत्या ना हो इसलिए अपनी तलवार को चलाने से रोका। ऐसे अनेक उदाहरण हमें उनके चरित्र में पढ़ने को मिलते हैं।
सार्वभौम राजपद की सिद्धता
सन १८२७ तक किये हुए क्रांति कार्य के कारण राजा उमाजी नाईक के मन में स्वतन्त्र और सार्वभौम राजपद सिद्ध करने की महत्त्वाकांक्षा बलवान हुई थी। पांगारी गाँव के नजदीक उन्होंने अपने भव्य दरबार करना शुरू किया था। बड़ी संख्या में उपस्थित जनता के सामने उन्होंने स्वयं को 'राजा' घोषित किया था, घोषित करके सार्वभौम राजपद की सिद्धता की थी। ब्रिटिशों को दिया जाने वाला वसूल 'राजा' के नाते उन्हें ही दिया जाय ऐसा आदेश उन्होंने जारी किया था। कई गावों के मुखियाओं ने इस आदेश का पालन किया था। इसका अर्थ ब्रिटिशों की सत्ता नष्ट करके अपनी सत्ता स्थापन करने के लिए उनका आत्मविश्वास बन गया था। इस बात का उल्लेख स्वयं ब्रिटिश अधिकारीयों ने किया है।
कोल्हापुर के छत्रपति संभाजी महाराज ने राजा उमाजी नाईक को कुछ शर्तों पर सहयोग दिया था। सातारा के छत्रपति तथा भोर के राज्य सचिव ब्रिटिशों के अधीन हुए थे। लेकिन छत्रपति संभाजी उमाजी नाईक के साथ जायेंगे ऐसा डर ब्रिटिशों को लग रहा था। दि। 20 दिसंबर 1827 को पांच ब्रिटिशों का सर काटकर उसे ब्रिटिशों को भेंट के रूप में भेज दिया था। साथ में संदेसा भी भेजा था 'आप हमें केवल मित्रता के पत्र दिया करें'। इतना साहस उस समय के किसी अन्य राजा या सरदारों ने शायद ही दिखाया था।
ब्रिटिशों की नौकरी और फिर से विरोध
उमाजी नाईक ने कोल्हापुर एवं सातारा के छत्रपति, कुलाबा के नौदल प्रमुख आंग्रे, जंजिरा के सिद्दी इनसे संपर्क रखा था जिस कारण ब्रिटिशों में उनके प्रति घबड़ाहट थी। इसके बावजूद कई लोगों ने ब्रिटिशों की नौकरी स्वीकार की थी। इसलिए अकेले लढना कितना संभव होता रहेगा ऐसी आशंका उनके मन में थी। दूसरी तरफ, उमाजी नाईक ने अगर नौकरी स्वीकार की तो उनका विरोध नष्ट करना आसान होगा ऐसी ब्रिटिशों की भावना थी। इसलिए उमाजी नाईक सन 1828 के जुलाई में ब्रिटिश नौकरी में शामिल हुए। लेकिन स्वतन्त्र राजा की हैसियत से रहनेवाले उमाजी नाईक को ब्रिटिशों की हुकूमत में रहना पसंद नहीं था। तनखा और अधिकार मिलाने के बावजूद उन्होंने ब्रिटिशों की नौकरी से 1830 के दिसंबर में मुक्तता कर ली। इसके बाद का करहेपठार पर अपने साथियों को इकट्ठा कर नई योजना बनाई।
हिन्दुस्थान की स्वतंत्रता का घोषणापत्र
राजा उमाजी नाईक ने नए सिरे से 16 फरवरी 1831 को हिन्दुस्थान की स्वतंत्रता का घोषणापत्र जारी किया। यह घोषणापत्र हिन्दुस्थान की सारी प्रजा को ब्रिटिशों के विरोध में उठ खड़े होने का निर्देश देनेवाला था। इसमें युरोपियन की हत्या करने के लिए जहागीर और इनाम दिया जायेगा, उनके नए सरकार को बनाने में मदद करनेवालों को वंशानुगत विरासत दी जाएगी, आदेश का पालन न करनेवालों को नयी सरकार शासन करेगी, ब्रिटिश और युरोपियनों की लूट की जाए, ब्रिटिशों को राजस्व न दिया जाय इस प्रकार की घोषणाएं इस घोषणापत्र में थी।
छत्रपति शिवराय का आदर्श रखनेवाले उमाजी नाईक ने घोषणापत्र में 'स्वराज्य' के बजाय 'हिन्दुस्थान' ऐसा शब्दप्रयोग किया है क्योंकि के स्वराज्य की संकल्पना शिवकालीन थी और केवल मराठी प्रदेश के लिए लागु हो सकती थी ऐसा उनका मानना था। ब्रिटिशों ने सारे भारत देश पर कब्ज़ा किया था। इसलिए सारा हिन्दुस्थान और न की केवल महाराष्ट्र ब्रिटिशों से मुक्त होना चाहिए इस उद्देश्य से उन्होंने हिन्दुस्थान शब्द का प्रयोग किया था। उमाजी नाईक की राष्ट्रीयत्व की कल्पना कितनी व्यापक और ऊंची थी इसका अनुभव होता है।
पहला हुतात्मा और आद्य क्रांतिकारक
राजा उमाजी नाईक का क्रांतिकार्य और उन्होंने घोषित किया हुआ घोषणा पत्र का अभ्यास करने पर उस समय शायद ही कोई और वीर इतनी संवेदना लड़ता हुआ दिखता नहीं है। या कोई और क्रांतिकारक के कार्य के मूल असली दस्तावेज भी उपलब्ध नहीं हैं। उस समय के राजाओं, सरदारों के पास अपना प्रदेश, धन और सैन्य होते हुए भी उन्होंने ब्रिटिशों का वर्चस्व स्वीकार किया था। उमाजी नाईक के पास तो विरासत से मिला हुआ कुछ नहीं था। पहाड़ों और घाटियों में आश्रय लेकर, लोगों को जोड़कर, हथियार मिलकर उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के सामने विद्रोह किया। इस विद्रोह को समूचे राष्ट्र में फ़ैलाने की अभिलाषा रखी। लेकिन उनके इस विद्रोह को जनक्रांति का रूप नहीं मिला। फितूरी हुई और वे पकड़ा दिए गए। इस देशके परकीय राज के खिलाफ पहला हौतात्म्य राजा उमाजी नाईक का रहा। उन्हें 3 फरवरी 1832 को पुणे में फांसी पर चढ़ाया गया। उनके क्रांतिकार्य का इतिहास आज भी स्फूर्तिदायी होता रहा है।
अपने मातृभूमि के लिए पहला हौतात्म्य स्वीकारने वाले आद्यक्रांतिवीर राजे उमाजी नाईक 7 सितम्बर यह उनके 229 वे जयंती दिवस पर अभिवादन!
प्राचार्य डॉ. अनिल बैसाणे, धुळे
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