हमारा भारत धर्म प्रधान देश है। यहां की संस्कृति धर्म पर आधारित हैं। आदिकाल से मानव मन भाव एवं प्रकृति से ओतप्रोत रहा है। भाव और भक्ति का सम्बन्ध मानव हृदय से है। जिसका प्रकटीकरण उपासना, भक्ति के माध्यम से किया जाता है। सगुण भक्ति धारा ने मध्ययुगीन भारतीय समाज के धार्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक जीवन के अनेक पक्षों को प्रेरित एवं प्रभावित किया है। उसके लिए सगुण के साथ निर्गुण की स्वीकृति भी आवश्यक है, अपितु सगुणोपासक तुलसीदास के लिए निर्गुण सत्ता अमान्य नहीं थी। वस्तुतः सगुण भक्त कवियों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व सहज एवं सरल होने के साथ ही लोक जीवन के अनेकानेक धरातलों को वैयक्तिक एवं ऐकांतिक आदर्श एवं सिद्धान्तों से अनुप्राणित किया है। सगुण भक्ति के मूल में सांस्कृतिक जीवन के मुख्यतः दो पक्ष हैं। (१) विचार पक्ष, (२) आचार पक्ष। तुलसीदास जी ने सगुण भक्ति के अवतारवादी आराध्य देवों के निर्गुण निराकार स्वरुप की सूक्ष्म और तांत्रिक धारणाओं को नहीं वरन् उसके रूप, गुण, क्रिया और चरित्र आदि के विचित्रता से पूरित मानवीय आकर्षण के आलम्बन साकार ब्रह्म के रुप को प्रतिष्ठित किया क्योंकि मध्ययुगीन सगुण भक्ति में उपलब्ध अनुराग सूचक भक्ति की अभिव्यक्तियों तथा माधुर्यपरक भावमण्डित अभिव्यक्तियों को देखकर सगुण भक्त कवि निर्गुण निराकार ब्रह्म को साकार रुप दे दिया। निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना से हटकर सगुणोपासक भक्त कवि तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों से खिन्न होकर भगवान की शरण में जाने लगे। राजनीतिक दासता, परवशता, निराशा से युक्त उनके लिये ईश्वर की शरण में जाने के सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं था। जिससे कोई त्राण ढूंढा जा सके। साकार तत्व के लिए व्याकुल अवतारी भगवान को अपने पास रखना चाहते थे जिससे ये त्रस्त हिन्दू जनता की रक्षा कर सके। "अहं ब्रह्मास्मि और सर्वखल्विदं ब्रह्म" के आधार पर संसार को मिथ्या और क्षणभंगुर मानने वालों को यथार्थ तत्व ज्ञान का बोध नहीं था। ऐसे दम्भी साधकों से बचने के लिए संसार को सारयुक्त मान कर भक्ति के पथ पर जन मानस को लाने के लिए सगुण साकार अवतारी ब्रह्म की उपासना हुयी। जिसके दो पथ (रामभक्ति और कृष्ण भक्ति) है। दोनों के साधन अलग होते हुए साध्य एक है।
ब्रह्म व्यक्त और अव्यक्त दोनों का सम्मिश्रण है सगुण धारा के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम राम। उनके चरित्र में सहज मानव जीवन की प्रेरणाओं, परिस्थितियों, अभावों एवं ऐश्वर्यों के संघर्ष के साथ समाज के विश्वजनीन आदर्शों का अनुपम उदाहरण है। यथा- गोस्वामी तुलसीदास जी की समस्त रचनाएं लोक जीवन के सभी व्यावहारिक पक्षों को समृद्ध करती हैं। धर्म, दर्शन, संस्कृति, कला और उपासना पद्धति से विविध महत्वपूर्ण क्षेत्रों को अनुप्राणित कीया है। फलतः कृष्ण भक्ति में विचार एवं राम भक्ति में आचार पक्ष की प्रबलता है। गोस्वामी तुलसीदास जी आचार पक्ष की डोर पकड़कर आगे बढ़ते है और समाज में व्याप्त दुराईयों और कुरूतियों से जकड़े जनमानस के बीच आदर्श चरित के माध्यम से सामाजिक समरसता का भाव भरते हैं। आचार पक्ष के प्रबल समर्थक गोस्वामी तुलसीदास जी अपनी रससिक्त वाणी से जनमानस को आलोकित किया। तुलसीदास समन्वयवादी कवि थे। महाकवि तुलसीदास का जीवन वृत्त आज भी तिमिराच्छिन्न हैं। उस समय अपने देश में आत्म कथा लिखने की परम्परा नहीं थी। गोस्वामी जी ने अपनी क्रमबद्ध जीवनी नहीं लिखी। अपितु कुछ तथ्य स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। उनके जन्म के दूसरे दिन ही मां का निधन हो गया। पिता ने किसी अनिष्ट से बचने के लिए दलित समाज की एक दासी को पालन-पोषण करने हेतु साँप दिया और पाँच वर्ष की आयु में ही वह दासी भी स्वर्ग सिधार गई। यह घटना उनके जीवन की ईश्वरीय विधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक समरसता का अनोखा उदाहरण है। अपने दीर्घ जीवन काल में तुलसीदास जी ने सम-सामयिक वर्तमान परिवेश में कालजयी ग्रन्धों की रचना की यथा:- रामचरितमानस, विनय पत्रिका कवितावली, बरवै रामायण, गीतावली, रामलला नहछू वैराग्य संदीपनी, रामाज्ञा प्रश्नावली, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, सतसई, अरण्यकाण्ड, दोहावली, राम शलाका, हनुमान चालीसा, कवित्त रामायण, छप्पय रामायण, झूलना, रोला रामायण, संकट मोचन आदि। जनश्रुति के अनुसार गोस्वामी तुलसी जी का विवाह दीनबन्धू पाठक की कन्या रत्नावली से हुआ था और ये अपने पत्नी के बड़े ही भक्त थे। अधिक आसक्ति के कारण जब एक बार अपने पत्नी से माधुर भर्त्सना मिली कि- “लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ।“ इतना सुनकर गोस्वामी जी का अन्तःकरण प्रकाशित हुआ और वह लौकिक सुख से विमुख होकर प्रभु प्रेम की ओर उन्मुख हो गये और अनेकानेक ग्रन्थों की रचना की। उनकी रचनाओं में विशेष रूप से रामचरितमानस, रामाज्ञा प्रश्नावली गीतावली, विनयपत्रिका, कवित्त रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल इत्यादि में इनके जीवन सम्बन्धी कतिपय संकेत सूत्र अवश्य मिलते हैं। छोटे-बड़े ग्रन्थों के माध्यम से राम की उपासना की तथा जनमानस की राग वृत्तियों को राम भक्ति के माध्यम से पुनः पुष्पित पल्लवित किया। संघर्ष रत समाज की अवधारणा में एक तरफ भाव के माध्यम से भक्ति करना सिखाते हैं और दूसरी तरफ राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं पारिवारिक जीवन के अनेकानेक आदर्शों को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
हिन्दू समाज की फूट को दर्शाते हुए उस पर लगाम भी लगायी। गोस्वामी जी की भक्ति ज्ञानकोश एवं ज्ञानोपयोगी नहीं वरन् सीधी सरल, सहज, सुकोमल, साध्य है। समाज में आज से नहीं प्राचीन काल से अनेकानेक वर्णों एवं जातियों का आविर्भाव हुआ-शक, हूण, यवन, कम्बोज, पारसी, मंगोल आदि जातियाँ भारत में आयीं और हर एक के विचारों में भिन्नता थी, विजित एवं विजेता दोनों में फर्क था; जिस कारण संघर्ष लगातार होता रहा। भक्ति काल की राजनैतिक स्थिति एवं सामाजिक स्थिति अपने आप में एक बपौती थी, जिसे मिटाना आसान नहीं था। भक्ति काल का समय उन्माद और कलह का काल था। ऐसी विषम परिस्थिति में महापुरुषों में अग्रणी गोस्वामी तुलसीदास भारतीय समाज में समरसता और संस्कृति के उन्नायक थे। तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरूतियाँ, ऊँच-नीच, छुआछूत, जाति-पाँति के भेदभाव को मिटाने तथा सामाजिक समरसता, सद्भाव को बनाये रखने के लिए रामचरितमानस की रचना की तथा अपनी रचना में निषाद, केवट, शबरी, कोल, भील, किरात, बन्दर, भालू, बनवासी जैसे निम्नजाति के लोगों को भगवान का मित्र बनाया है, उनका समाज को यह संदेश है कि भगवान के दरबार में सब बराबर होते हैं। गोस्वामी जी बरवै रामायण में रहीम का योगदान बताया है, वैराग्य संदीपनी में संत महिमा का वर्णन प्राचीनतम पद्धति को दर्शाता है, पार्वती मंगल में लोकनीति का अद्भुत उदाहरण है, वहीं रामाज्ञा प्रश्न में तुलसीदास जी मंगल-अमंगल का राम कथा के माध्यम से विविध प्रयोग किए, दोहावली, कवितावली, गीतावली में भी सामाजिक सिथिलता जन सम्पर्क, सामाजिक परिवर्तन को दृष्टिगत रखते हुए अपने दोहे में समावेशित किया है। उनके समस्त रचनाओं को महान धार्मिक ग्रन्थ तथा जनमानस का आदर्श ग्रन्थ माना गया। जिसके माध्यम से जन मानस आलोकित हुआ। इसके पीछे एक और तथ्य उजागर है कि रामभक्ति धारा को कल्याणकारी दिशा निर्देश देकर उत्तर भारत में लाने का भगीरथ प्रयास रामानन्द ने किया। साथ ही राम भक्ति का प्रचार प्रसार किया रामानन्द ने युगीन परिप्रेक्ष्य में राम के सगुण रुप को अपनाया, लेकिन अपनी विचारधारा को अपने शिष्यों के ऊपर लादने का प्रयास नहीं किया, क्योंकि उनका विचार कि गुरु को आकाशधर्मा होना चाहिए जो पौधों को बढ़ने के लिए उन्मुक्तता दे, न कि शिलाधर्मी की भांति उसका विकास ही रोक दे। उदार प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप शिष्य परम्परा में राम के निर्गुण रुप का प्रचार करने वाले कबीर हुए तथा राम के सगुण रुप का प्रचार करने वाले तुलसी हुए और दोनों ने ही समाज में व्याप्त कुरूतियों पर कुठाराघात किया तथा अपनी उपासना पद्धति से रामोपासक भक्त शक्ति, शील और सौन्दर्य से पूरित रुप को अपना उपास्य देव मानते हैं।
तुलसीदास जी ने तो भगवान के रक्षक, पालक, रंजक तीनों रूपों अपने काव्य का विषय बनाया अपितु राम का लोकरक्षक रुप ही विशेष प्रिय है। लोक में जब धर्म की सेना हारने लगी तो अधर्म की सेना प्रबल दिखायी पड़ने लगी। उसी समय तुलसीदास जी अपनी रचनाओं में वंचित समाज के दार्शनिक पक्ष को उकेरते हैं। अपनी लेखनी शक्ति से धर्म तत्व और लोकबल का प्रकाश करते हैं। राम के उपासक राम को "परम ब्रम्ह" जिन्होंने विप्र, धेनु, सुर, संत हित के लिये मनुष्य रुप में अवतार लिया। ज्ञानी, योगी और मुनि, सिद्ध निरन्तर जिसका ध्यान करते हैं और वेद पुराण और शास्त्र नेति नेति कह कर जिसकी कीर्ति गाते हैं तथा यही सर्वव्यापक समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी मायापति, नित्य परम स्वतंत्र ब्रह्म रुप भगवान श्रीराम सर्वत्र व्याप्त है। विश्व के प्राणी मात्र में उनकी सत्ता विराजमान है। यह जगत प्रकाश्य है और श्रीराम इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी ज्ञान और गुणों के धाम हैं। "जड़ चेतन जग जीव जगत सकल राममय जानि" उनका आदि अंत किसी ने नहीं जाना है। वेदों ने बुद्धि से अनुमान करके कहा है कि वह ब्रह्म बिना पैर के चलता है बिना कान के सुनता है, बिना हाथ के नाना प्रकार का काम करता है और बिना मुख ही समस्त रसों का आनन्द लेता है और वह विना वाणी के ही श्रेष्ठ वक्ता है। वह शरीर रहित होकर भी स्पर्श करता है वह नेत्ररहित होकर भी देखता है तथा नासा रहित सब गन्धों को ग्रहण करता है। वह सब प्रकार से अलौकिक है तथा उसकी महिमा अवर्णनीय है। तुलसीदास जी के रचनाओं में जिस राम का वर्णन है । वह समस्त लोकों के स्वामी अनादि तथा अनन्त हैं। वे पृथ्वी, गौ, गंगा, ब्राह्मणों एवं देवताओं के उद्धार के लिए मनुष्य शरीर धारण किये हुए भक्तों को आनन्द देने वाले, दुष्टों का विनाश करने वाले तथा वेद एवं धर्म की रक्षा करने वाले हैं। वे समाज की बुराइयों को समाप्त कर एक आदर्श चरित के अन्तःसाक्ष्य और बहिर्साक्ष्य को उद्घाटित करते हैं।
निश्चित रूप से तुलसीदास जी ने लोकमंगल एवं विश्व बन्धुत्व की भावना को समाज में प्रतिपादित किया जो समाज के लिए एक अभूतपूर्व देन है। जो विस्तृत रुप से रामचरितमानस में वर्णित है। आत्म समर्पण, ईश्वर के अनुग्रह पर विश्वास, नाम रुप कीर्तन तथा गुण भक्ति की प्रवृत्तियां जिस प्रकार तुलसीदास जी के समस्त रचनाओं में विद्यमान हैं। वही सामाजिक समरसता का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं, तुलसीदास जी ने सगुण भक्ति पर बल देते हुए ईश्वर के प्रति आत्म समर्पण की भावना से अनन्य निष्ठा प्रदर्शित की है। वे साकारोपासना के मानवतावादी चिन्तनशील एवं ज्ञानयुक्त कवि हैं। अज, अद्वैत, अरूप, अलख, ब्रह्म ही भक्त कवियों के लिए सगुण हो गया है। उनकी समस्त रचनाएं लोकरंजक एवं लोकरक्षक है। इसमें रूढ़िवादी विचार धारा का खण्डन तथा सत्य का प्रतिपादन करते हुए समाज को विषम परिस्थिति से मुक्त करने का काम किया गया है। ब्रह्म जीव, जगत, माया को एक दूसरे से अभिन्न मानते हुए उसके मूल में वैष्णव भावना की भी एक झलक है, जो जीवन्त एवं सरस रुप में दिखती है। यही कारण है कि राम के प्रति जनमानस में एक ललक पूर्ण भक्ति का प्रवाह है। पूर्ववर्ती लोकजीवन के बाह्य एवं आभ्यांतर अनेक समस्याओं एवं अभिरुचियों के चतुर्दिक प्रवाह को समस्त वैविध्य एवं वैचित्र्य के साथ समान रुप से प्रेरित एवं प्रभावित किया है। इस प्रेरणा और प्रवाह का जनमानस पर बहुत बड़ा असर हुआ और धार्मिक, दार्शनिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक चेतना के विभिन्न स्तरों पर मानवता प्रभावित हुई। परन्तु सगुण भक्त अपने उपास्य देवों की कल्पना साकार रुप में करते रहे हैं और उनकी लीलाओं का गान करना ही उनकी भक्ति है। वसुधैव कुटुम्बकम, स्वानुभूति और स्वरक्षार्थ की भावना से ओतप्रोत भक्त एक ही ब्रह्म के उपासक हैं यही उनका परम उद्देश्य है। भक्ति आन्दोलन के प्रारम्भिक चरण से लेकर अन्त तक क्रान्तियां तभी हुयी जब-जब मानवता खतरे में पड़ी। तुलसीदास जी का मुख्य ध्येय ही मानवतावाद को प्रतिष्ठित करना है। वे भक्ति के माध्यम से आन्तरिक प्रेम की उपज और समरस समाज में प्रेमभावना का प्रकटन करते हैं।
निष्कर्षतः रामचरितमानस के प्रणेता महाकवि तुलसीदास जी न सिर्फ राम भक्त थे अपितु लोकधर्मी और सचेतक संगठन कर्ता थे। उनका जीवन संघर्ष, विद्रोह, समर्पण से पूर्ण था। अस्तु भारतीय समाज रूढ़ियों, विकृतियों और धार्मिक मान्यताओं के बेड़ियों से जकड़ा हुआ था । इसका सामना तुलसीदास जी ने जन्म से मृत्यु तक किया। वह जिस समाज की परिकल्पना करके समाजोन्मुखी रचनाओं के माध्यम से मानवीयता स्वार्थ, त्याग, बलिदान, समानता, शिष्टाचार, भाईचारा, मार्धुयपूर्ण जीवन यापन के मूल बिन्दुओं के तरफ ध्यानाकर्षण किया है, इतना ही नहीं समाज का यह मानसिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, भौतिक परिवर्तन क्षणिक न होकर चिरस्थायी है। उन्होंने युग को पहचाना और भक्ति भावना की अलख जगायी। राम के भक्ति का आदर्श एवं चरित उपस्थित किया। मूलरूप से तुलसीदास की सम्पूर्ण काव्य रचना मानव प्रेम का अप्रतिम उदाहरण है, जहाँ न कोई बैर है न कोई द्वेष है, न कोई कुटिलता है, न कोई शत्रुता है, न कोई अराजकता है, अगर है तो मात्र मानव धर्म । तुलसीदास जी की समस्त रचनाएं समग्रता में सामाजिक परिवेश को सुन्दर, सुगठित, सुव्यवस्थित एवं समरस समाज बनाकर रामराज्य की कल्पना का प्रकटीकरण करती हैं।
इति
डॉ. मंजु द्विवेदी
सेन्टेनरी विजिटिंग फेलो
भारत अध्ययन केन्द्र
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