बुद्धपूर्व काल में प्रचुरता से विचार मंथन शुरू हुआ था। उपनिषदों द्वारा प्रारंभ हुई वैचारिक क्रांती का वृक्ष फलने लगा था। उपनिषद कर्ताओं ने तो वेद में एक ओर रखे हुए प्रश्नों पर काम करना शुरु किया था । किंतु इस ज्ञानमार्ग का अनुसरण करने वाले कम ही थे । ऊनकी अपेक्षा परंपरागत यज्ञ मार्ग का अनुसरण करने वालों की संख्या अधिक थी । सुख और स्वर्ग की प्राप्ति हेतु यज्ञ, और उस में बली चढाकर देवताओं को प्रसन्न रख सुखासीन आयुष्य प्राप्त करना यही जीवन का उद्देश्यमात्र रह गया था ।इस कल्पना का रूपांतर ज्ञान पाने की बजाय कर्मकांड के अनुसरणमें हुआ था । इसी कारण, कभी स्त्री-पुरुष भेद न मानने वाली यह समाजरचना पुरुषप्रधान हो चुकी थी । इतिहास की नजरों में इसी कालखंड को उत्तर वैदिक कालखंड कहा जाता है।
बौद्धिक उन्माद के इस कालखंड में सारे महान व्यक्ती आत्मा, ब्रह्म, यह जग ‘सान्त’ है या ‘अनंत’ है ऐसी चर्चाओं में रममाण थे ।परिणामस्वरुप, ऐसी स्थिती आ गई की बहुजन समाज को ऐसा प्रतित होने लगा की यह अध्यात्मिक मार्ग हमारे लिये नहीं है ।समाज में महिलाओं की स्थिती और भी विकल हो गई थी।
ऐसे स्थिती में भगवान गौतम बुद्ध ने बहुजन समाज को दुःखों से मुक्ति के लिये एक सहज रास्ता दिखा दिया । पुराने मार्ग का अवलंबन करने वाले बहुत सारे लोग इस प्रवाह में सम्मिलित होने लगे । आरंभ में तो यह मार्ग केवळ पुरुषो के लिये खुला था।
स्वयं भगवान बुद्ध महिला-पुरुष आदि भेदोंसे परे थे; किंतु उन्हें तत्कालिन पुरुष प्रधान समाजरचनामें महिलाओं के लिये इस मुक्ती पथ को खोलनेका कार्य आसान नहीं है इसकी पूरी कल्पना थी।
ऐसी अवस्था में भगवान गौतम बुद्ध की मौसी, महाप्रजापती गौतमी ने, जिन्होंने सिद्धार्थ गौतम को स्वयं पाल-पोस के बडा किया था, उनसे महिलाओं को संघ में आने अनुमती का आग्रह किया । लेकिन तथागत ने तीन बार महिलाओं को संघ में सम्मिलित होने की अनुमती नही दी । अंत में जब उन्होंने अपनी मातासमान मौसी को कषाय वस्त्र पहने हुए देखा, तब जाकर कुछ शर्तों पर महिलाओं को संघ में सम्मिलित किया गया।
कहीं कुछ लोग भगवान बुद्ध के इन तीन नकारोंको असमानताकें रंगमें रंगाकर देखने की चेष्टा करते है । पर ऐसे लोग इस बात को दुर्लक्षित करते है की, बाहर घोर असमानता होने पर भी तथागत ने किसी भी तरह से साधना में महिलाओं की क्षमताओंको को कम नहीं आँका ।जो साधना पुरुष साधक किया करते थे, वही साधना महिला साधकों के लिये उपलब्ध थी । हर महिला बोधी (आत्मज्ञान) प्राप्त कर सकती थी । इतना ही नहीं हर महिला धम्म का प्रचार कर सकती थी, गाथायें भी रचा सकती थी तथा निब्बाण प्राप्तीकी भी अधिकारी हो सकती थी।
आत्मज्ञान के क्षेत्र में धम्म में दी गई पूर्ण समानता और बौद्धिक स्वतंत्रता तत्कालिन परिस्थितीयोंमें महान आश्चर्य था । क्यों की उस समय सभी क्षेत्रो में महिलाओं की स्थिती पुरुषो की तुलना में हीन मानी गई थी । धम्म जैसे अध्यात्मिकता के क्षेत्र में महिलाओं को अपनी बौद्धिक क्षमता सिद्ध करने का अवसर तथागत ने दिया । यह एक क्रांतिकारी कदम था।
ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर इसा के पहिली शताब्दी तक कई महिलाओं ने आत्मज्ञान तथा बोधी प्राप्त की । थेरी ग्रंथ की रचना कर के इतिहास रचा । धम्म के विभिन्न विषयों पर भाष्य करणे के लिये महिलाए सक्षम थी । उनके साहित्य को त्रिपिटक में सम्मान का स्थान मिला | महिलाओं ने विभिन्न तरीकों से अपनी योग्यता सिद्ध की।
किसा गौतमी की एक कथा बहुत ही प्रसिद्ध है । किसा गौतमी अपने बच्चे के मृत्यू के बाद बहुत शोकाकुल हो गई और तथागत के पास पहुंची । उसका शोक देखकर, गौतम बुद्ध ने किसा को किसी ऐसे घर से राई लाने के लिये कहा; जिस घर में कभी किसी की मृत्यू नहीं हुई हो! बहुत घुमने के बाद उसे पता चला की ऐसा एक भी घर नहीं है, जहाँ मृत्यू नहीं हुआ है । ये आत्मबोध होते ही किसा गौतमी ने अपना शोक त्याग दिया और दीक्षा प्राप्त कर के वो भिक्षुणी बन गई । उन्होंने रची हुई गाथा इस प्रकार है।
“न गामधम्मो नो निगमस्स धम्मो
न चापियं एककुलस्स् धम्मो
सव्व लोकस्स सदेवकस्स
एसेव धम्मो यदिद अनिच्चता ति।”
भावार्थ : गाव, नगर, कुल, देव, मनुष्य सब का अनित्यता ही धर्म है।
'मार' नामक एक कल्पना बौद्ध साहित्य में बहुत ही प्रसिद्ध है। मार को विषयी लोगों का अधिपती माना जाता है। जो लोग ध्यान और संन्यास प्राप्त करने की इच्छा रखते है और उस दिशा में प्रयत्न करते है, उनका ध्यान विचलित करने के लिये मार अपने कन्या और पुत्रोंका सैन्य ले के आता है। भगवान गौतम बुद्ध को भी इनके साथ लडाई करके ही जय प्राप्त हुई थी।
सयुंक्तनिकाय में सोमा भिक्षुणी की एक कथा आई है । सोमा भिक्षुणी श्रावस्ती में ध्यान करने के लिये बैठी थी । तब मार ने उनके मन में प्रवेश किया और वह बोला "सोमा जो ज्ञान ऋषियों को भी बहुत ही मुश्किल से मिलता है, वो ज्ञान तुम्हारे जैसी मंद बुद्धी स्त्री को प्राप्त करना नामुमकिन है, इस लिये तू अपना ये प्रयत्न त्याग कर ।''
मार का दुष्ट इरादा उसके ध्यान में आता है । उसको ये भी मालूम पडता है की हेतुतः मार उसको मंद बुद्धी कह रहा है, ताकी वो अपना प्रयत्न छोड दे । उसको जबाब देते हुए जो गाथा वो कहती है, वह अपने आप में एक स्त्री के मन में जागृत हुए लिंगभेदों के परे होने वाले विचारों का उत्तम उदाहरण है । सोमा अपने आप को कही भी अज्ञानी महसूस ना करते हुए, जोर देते हुए यह कहती है की शुद्ध ज्ञान में पुरुष और स्त्री ये भेद नहीं रहता है । आगे वह ऐसा भी कहती है की जब मन में कोई भी चंचलता नहीं है और मन स्थिर हुआ है, और सम्यक ज्ञान और धम्म की पहचान हुई है, तो स्त्री होना किसी ज्ञान के आडे नहीं आता है । वो आगे कहती जिसके मन में स्त्री और पुरुष ऐसा भेद जागृत है, उनके लिये तुम्हारा ये कहना उचित है । मेरे लिये तुम्हारा ये कहना बिलकुल ही उचित नहीं है, इसलिये तुम यहांसे निकल जाओ।
मगध के राजा बिंबिसार की रूपवती राणी खेमा की और एक कहानी है । राणी खेमा को अपने रूप पर बडा ही गर्व था । राजा बिंबिसार सोचता था की राणी खेमा ने गौतम बुद्ध का दर्शन करना चाहिए । लेकिन रानी मन में आता था की जिसको हमने इतना दान दिया है, उसके पास जाने की क्या आवश्यकता है? एक बार जब वो कुछ दान देने के लिये बुद्ध विहार में जाती है, तब उसको खुद की ही तरुण और वृद्ध प्रतिमाएं नजर आती है, यह देखते हुए वो अपने रूप के गर्व का त्याग करके धम्म की दीक्षा लेती है।
खेमा नाम की और एक बुद्धिमान भिक्षुणी हो गई । राजा प्रसेनजित और खेमा भिक्षुणी के बीच में मनुष्य जन्म और उसकी अवस्थाओं के बारे में जो संवाद हुआ है इसका समग्र वृत्त सयुंक्त निकाय में आया है।
कंजलिका नाम के एक भिक्षुणी को कई साधकों ने तथागत का उपदेश संक्षेप में बताने के लिये कहा । तब उन्होंने सुगमतासे से सभी को तथागत के उपदेश का सार बताया और बडी विनम्रता से कहा की जो मैने कहा है, इसका सत्यापन आप स्वयं तथागतसे ही करवायें । जब इस प्रसंग का वर्णन साधाकों ने तथागत के सामने किया तो वह बोले की कंजलीका महाप्रज्ञा है, अगर आप मुझे भी पूछते तो मैं भी वही कहता जो कंजलीका ने कहा है । ये संवाद विनय पिटिक में आया है।
भगवान गौतम बुद्ध के उपदेश से अंगराज की बेटी विशाखा का मन धम्मानुकूल हुआ । उनका विवाह पुण्यवर्धन नाम के बडे खानदान में हुआ था । बुद्ध भिक्षुओं के बारे में उनके मन में बहुत करुणा थी और वह उनके लिये नित्य दानकर्म करती थी ।श्रावस्ती का एक भव्य उद्यान भी उन्होने संघ को दान दिया था । इतना ही नहीं उन्होने अपने सांस, ससूर तथा पती का मन भी धम्मानुकूल करने में सफलता प्राप्त की थी।
उत्पलवर्णा नाम के भिक्षुणी ने मार को जो सटीक जबाब दिया था वो थेरी गाथा में विशेष रूप में आया है । स्त्री के सौंदर्य का उसके सामने वर्णन किया या उसके चरित्र्य पर किचड उछालें तो वह असहाय हो जाती है, ऐसा मार को लगता था और यह मार समाज के बेतुकी बात करने वालों का प्रतिनिधी है । उत्पलवर्णा की इस गाथा का सुंदर अनुवाद हिस डेव्हिस ने इंग्लिश में किया है ।
“Where there and hundred thousand seducers-e'n such as thou art.
Ne'er would a hair of me stiffen or tremble- alone what canst thou do?
For,all my mind is self controlled.
Like Spears and jav'lins are the joys of sense.
That pierce and rend the mortal frames of us,
These that thou speak'st of as the joys of life-
Joys of that ilk,to me are nothing worth.”
भगवान बुद्ध के कालखंड की ऐसी बहुत सारी कथाएं थेरी गाथा में मिलती है । थीसा, धीरा, पुन्ना, मिता, भड्डा, सोना, शकूला, शीला, सुमेधा, इसिदासी, सुंदरी, रोहिणी, विजया, अनुपमा, सुजाता, पाटाचारा, अभया, सुमन, सुमंगलमाता आदी बहुत सारी भिक्षुणीओं ने अध्यात्म मार्ग पर प्रगती की थी और ज्ञान और अध्यात्म मार्ग पर पुरुषो का जितना अधिकार है उतना ही अधिकार स्त्रियों का भी है यह सिद्ध किया था।
भगवान बुद्ध के कालखंड में शुरु हुई यह ज्ञान की गंगा युगोंतक भारत में बहती रही । संघमित्रा, उत्तरा, हेमा, अग्निमित्रा जैसी अनेक भिक्षुणीओं ने भगवान बुद्ध के बाद भी काल पर अपनी अमिट छाया छोडी है।
स्त्री- पुरुष समानता के केवळ शाब्दिक ढोल ना पिटते हुए, सामाजिक आचारों को ध्यान में रखकर, ज्ञान की उपासना में भेद ना करते हुए स्त्रीयों को स्वतंत्रता देकर भगवान गौतम बुद्ध ने महिलाओं के लिये साधना और आत्मज्ञान का मार्ग खुला कर दिया । इस मार्ग में स्त्री और पुरुष ऐसा कोई भेद नहीं है, यह अपने आचरण से सिद्ध कर दिया । माता गौतमी ने आनंद की सहायता लेकर संघ में जो प्रवेश किया, वो भारत की इतिहास में एक सुवर्णक्षण था।
रमा दत्तात्रय गर्गे