श्री नारायण गुरु

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shri narayan guru jayanti
 
 
 
   कुछ दशक पूर्व केरल की हरी-भरी धरती सामाजिक और आर्थिक विषमताओं का एक जीता-जागता उदाहरण थी। स्वामी विवेकानंद ने तो इसे एक “पागलखाने" की संज्ञा दी थी। एक तिहाई से ज्यादा आबादी अछूत मानी जाती थी और उनके लिए विद्यालयों, महाविद्यालयों के दरवाजे बंद थे। वे न केवल सरकारी नौकरियों से बाहर रखे जाते थे, बल्कि हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा करने, मंदिर जाने तक पर पाबंदी थी। वे अत्यंत गरीबी की हालत में जीने के लिये मजबूर थे। लेकिन कुछ दशक पूर्व की उस स्थिति से आज का केरल एकदम भिन्न है। अछूत माने जाने वाले कई लोग बुद्धि और कौशल में किसी से पीछे नहीं हैं। 4-5 दशक में ही केरल में एक बड़ा सामाजिक परिवर्तन हुआ है। श्री नारायण गुरु ने जमीनी स्तरपर सामाजिक व धार्मिक सुधार किए और केरल में ठोस तथा रचनात्मक सामाजिक सुधार लाने में वे सफल रहे। सामाजिक जड़ता के दौर में उन्होंने अद्वैत सिद्धान्त का प्रसार किया और “भगवान के लिए सभी जन बराबर हैं’, का घोष पुरे केरल में गुंजाया।
 
   श्री नारायण गुरु का जन्म केरल में तिरुअनंतपुरम से करीब 15 कि.मी. उत्तर- पूर्व में स्थित एक छोटे से गांव चेंपाजंती में 20 अगस्त, 1854 को हुआ। उनके पिता मदन असन एक किसान थे, वे प्रसिद्ध आचार्य (गुरुकुल के) और संस्कृत के विद्वान थे, आयुर्वेद और ज्योतिष के ज्ञाता भी थे। श्री नारायण गुरु की मां एक सरल महिला थीं। अपने माता-पिता की चार संतानों में एकमात्र बालक थे नारायण अथवा “नानू’। नानू एक आम बालक की तरह पले-बढ़े। 5 वर्ष की आयु में उन्हें गांव के स्कूल में मलयालम में प्राथमिक शिक्षा के लिए भर्ती किया गया। वहां उन्होंने संस्कृत का भी अध्ययन किया। प्राथमिक शिक्षा के बाद नानू ने घर पर रहकर खेती और घरेलू कामकाज में हाथ बंटाया। 15 वर्ष की आयु में माता के देहान्त के बाद उनके मामा कृष्ण वेदयार (आयुर्वेदाचार्य) ने उनकी देखभाल की। कृष्ण वेदयार को अपने भांजे की अप्रतिम प्रतिभा का जल्दी ही पता लग गया। अत: नानू को उच्च शिक्षा के लिए करूनगपल्ली में एक योग्य अध्यापक रमण पिल्लै असन के पास भेज दिया।
 
   रमण पिल्लै एक सवर्ण हिन्दू थे। जिस ईषव जाति में श्री नारायण का जन्म हुआ था, वह उस समय विद्योपार्जन के अधिकार से वंचित थी ही, उसे आम रास्तों पर चलना भी वर्जित था । सभी निम्न जाति के लोगों से दूर-दूर रहते और उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते । चूंकि नानू जन्म से अछूत था अत: उसे अपने गुरु के घर के बाहर रहकर अध्ययन करना पड़ा। नानू एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी सिद्ध हुआ और उसने अपने सभी साथियों से आगे निकलकर शिक्षकों के सामने संस्कृत में अपनी विद्वता सिद्ध कर दी। संस्कृत में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् 1881 में नानू अत्यधिक बीमार पड़ गया और उसे वापस घर लौटना पड़ा। रोगमुक्त होने के बाद उन्होंने अपने पैतृक गांव में और आस-पास के क्षेत्रों में छोटे-छोटे विद्यालय खोलने का निर्णय लिया। यहीं से उन्होंने स्थानीय समाज के बालकों, विशेषकर पिछड़े वर्ग के बालकों में ज्ञान और शिक्षा का प्रसार आरम्भ किया।वस्तुत: यह दौर उनके जीवन में कड़े मानसिक संघर्ष का दौर रहा।
 
   एक ओर तो उन्हें परिवार के भरण-पोषण की चिंता करनी थी, तो दूसरी ओर उनके भीतर आध्यात्मिक उन्नयन और यथार्थ के अनुभव को पाने की तीव्र उत्कंठा जाग रही थी। उनके सब कामों पर उन्मुक्त आध्यात्मिक जीवन की तीव्र इच्छा की झलक दिखने लगी थी। अत: चिंतित रिश्तेदारों ने उनकी सोचमें बदलाव की दृष्टि से उनके विवाह का निश्चय किया। 28 वर्ष की आयु में श्री नारायण गुरु की इच्छा के विरुद्ध जबर्दस्ती उनका विवाह कर दिया गया।
 
   परिव्राजन घर का त्याग करके नानू आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में निकल गए। उन्होंने योग-शिक्षा ली, मारूतवमलै की गुफाओंमें साधना की, कठोर अनुशासन का व्रत साधा। व्यक्तित्व के विकास और गुण-सम्पन्नता हेतु कर्म और गति का दौर शुरू हुआ। काफी समय बाद श्री नारायण गुरु लोगों के बीच लौटे। वे गांव-गांव घूमे, जो भोजन मिला उसे खाया; समाज के अंतिम व्यक्ति के साथ रहे, पिछड़े वर्ग से घुले-मिले। सभी लोग उनसे प्रभावित हुए, उनके प्रति श्रद्धा जगी। समाज कार्य में सबसे पहले श्री नारायण गुरु ने तिरुअनंतपुरम से 20 कि.मी. दक्षिण में आरूविपुरम में नेय्यार नदी के तट पर 1888 में शिव मंदिर की स्थापना की और इस मान्यता को ठुकरा दिया कि केवल एक ब्राह्मण ही पुजारी हो सकता है। रूढ़िवाद के ठेकेदार 'पण्डित' भला यह कैसे सहन कर सकते थे? उन्होंने प्रश्न किया 'क्या एक ईषव (निम्न जाति) को मन्दिर स्थापना का अधिकार है ?' श्री नारायण गुरु ने एक सौम्य किन्तु सशक्त उत्तर दिया, "मैंने 'ब्राह्मण शिव' नहीं 'ईषव शिव' की स्थापना की है।" वे बार-बार यही कहते- 'मनुष्य की जाति, धर्म और ईश्वर एक है। इसीलिये मन्दिर में उन्होंने स्पष्ट लिखवा दिया, "यह वह स्थान है, जहाँ मनुष्य जाति-भेद, धार्मिक विद्वेष आदि से दूर भाईचारे से रहते हैं।" हिन्दू मंदिरों में जिनका प्रवेश वर्जित था, वे इस मंदिर में निर्बाध आ सकते थे। मंदिर के ही निकट उन्होंने एक आश्रम बनाया तथा एक संगठन बनाकर मंदिर-संपदा और श्रद्धालुओं के कल्याण की व्यवस्था की। यही संगठन बाद में श्री नारायण धर्म परिपालन योगम् (एस.एन.डी.पी.) के नाम से जाना गया, जो श्री नारायण धर्म का प्रसार करने लगा।
 
   1904 में श्री गुरु ने क्विलोन (आज कोझीकोड) के एक तटीय उपनगर वर्कला में एक शांत, सुरम्य पर्वतीय स्थल शिवगिरि में अपनी सार्वजनिक गतिविधियां केन्द्रित की। 1928 में अपनी महासमाधि तक श्री गुरु ने यहीं रहकर साधना की थी। शिवगिरी में उन्होंने शारदा मठ की स्थापना की, जहा कोई पूजा नहीं होती थी, न तो कोई त्यौहार मनाया जाता था। यह एक शान्त स्थान था जहाँ एकान्त में बैठकर ध्यान किया जा सकता था। शारदा शिक्षा के प्रतीक थी। वहाँ धर्म, साहित्य, कला तथा गुरु के आदर्श पर भाषण-मालायें, वार्ता, उपदेश आदि बराबर चलते रहते हैं। इन कार्यक्रमों में केरल अथवा भारत के अन्य प्रान्तों में ही नहीं श्रीलंका, बेल्जियम, जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका आदि देशों के उनके आदर्शों का प्रचार हो रहा है। शिवगिरि आकर ही श्री रविन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी ने श्री नारायण गुरु जी के दर्शन किए थे। उन्होंने स्वयं व्यक्त किया-"मेरे जीवन का सौभाग्य है कि एक ऐसे महात्मा का दर्शन पा सका । मैंने विभिन्न देश-विदेशों की यात्रा की, कई सिद्ध पुरुषों, महान् विभूतियों से मिला, लेकिन केरल के श्री नारायण गुरु के समान महापुरुष कहीं नहीं मिला।"
 
   बाद में एक समय उन्होंने उनके आत्म कथा कृत मूरकोत कुमारन । मंदिरों के बारे में उनका जो अटल विचार क्या है यह व्यक्त किया उन्होंन उसको लिखित रूप में रखा। उनका कहना था, “मंदिर के भवन बनाने में अधिक धन खर्च नहीं करना चाहिए। त्यौहारों में आतिशबाजी में भी खर्च नहीं करना चाहिए। सभा और अधिवेशन के लिए विशाल हॉल होने चाहिए। मंदिर के चार तरफ पेड़ पौधे होने चाहिए। मंदिर के आस-पास स्कूल और ग्रन्थालय भी होने चाहिए। मंदिरों के साथ तकनिकी प्रशिक्षण देने की व्यवस्था भी होनी चाहिए।“
 
   कुछ दिन के बाद उन्होंने कहा कि "अब शिक्षा के मंदिर बनाना चाहिए। शिक्षा संबंधी उनकी धारणा क्या है, वह उन्होंने स्पष्ट रूप में कह दिया। पहला उद्देश्य था कम-से-कम प्राईमरी कक्षा तक सब को शिक्षा देना।" अब तो यह लक्ष्य केरल में प्राप्त कर लिया है। दूसरा लक्ष्य है महिलाओं की शिक्षा। यह भी केरल में प्राप्त कर लिया है। किसी भी मानवीय विकास के कार्यक्रम में महिलाओं को पीछे नहीं छोड़ना चाहिए। इसके बाद उन्होंने अंग्रेजी सीखने के बारे में महत्वपूर्ण सुझाव दिया, आधुनिक दुनिया में जीने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान सहायक रहेगा। वंचित समुदाय के संपन्न परिवारों को उन्होंने उपदेश दिया कि वे आगे आये और उन बच्चों को जिन्हें कोई सुविधायें प्राप्त नहीं हैं उनको शिक्षित करने में सहयोग करे। यहाँ तक कि उनको विदेशों में जा कर शिक्षा प्राप्त करने में भी मदद करें। यह उपदेश आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने कहा "शिक्षा प्राप्त करो और स्वतंत्र बनो। शिक्षा युवा वर्ग को सोचने और अपने आप निर्णय लेने के लिए मदद करती है।" इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि उन्होंने सरकार से सहायता नहीं माँगी, न ही उन्होंने नौकरियों में आरक्षण माँगा। लोगों को उनका उपदेश था आत्मविश्वास और स्वयं पर्याप्तता प्राप्त करते हुए आगे बढ़ो। शिक्षा के बाद उन्होंने लोगों से आग्रह किया कि उद्योगों, विशेषकर कुटीर उद्योगों में वे ध्यान दे। उस समय मशीनों का उपयोग और बड़े उद्योगों का प्रचलन शुरू नहीं हुआ था। आधुनिक युग में विज्ञान कितना आगे बढ़ रहा है उसके बारे में उन्होंने पूर्वानुमान कर लिया था। गुरू जी ने लोगों को संगठित होकर जितने साधन है उनका उपयोग करके मशीन खरीद कर उद्योग शुरू करने का आवाहन किया था। बाद में जो सहकारी उद्योग वगैरह प्रारंभ हुए उसको पहले ही नारायण गुरु ने बताया था।
 
   श्री गुरु ने अलवाय में 1913 में अद्वैत दर्शन के प्रचार-प्रसार के लिए एक अद्वैत आश्रम की स्थापना की। यहां एक संस्कृत विद्यालय स्थापित किया गया।1920 में त्रिशूर में उनके द्वारा स्थापित कारामुक्कू मंदिर में किसी देवता की प्रतिमा नहीं बल्कि एक दीपक स्थापित किया गया था, जिसका संदेश था-चहुंओर प्रकाश ही प्रकाश हो। 1922 में मुरुक्कुमपुझा में बनाए गए मंदिर में देव प्रतिमा की जगह “सत्य, धर्म, प्रेम, दया" लिखवाया गया था। 1924 में उनके द्वारा स्थापित अंतिम मंदिर कलवनकोड मंदिर में उन्होंने गर्भ गृह में एक दर्पण लगवाया, ताकि मानव स्वयं का निरीक्षण, आत्म परीक्षण कर सके । उनका विश्वास था कि ईश्वर जन-जन में बसता है। जो अपने आपको जान लेता है, वह ईश्वर को पहचान लेता है। केवल सत्य, प्रेम, दया और शान्ति ही वे सीढ़ियाँ हैं, जिनके सहारे हम अपने आपको श्रेष्ठ बना सकते हैं।
 
   जाति भेद के बारे में उन्होंने अपना विचार कई अवसरों पर स्पष्ट बताया है। मनुष्य मनुष्य के बीच में कोई भेद नहीं होना चाहिए। एक बार उन्होंने एक पत्रकार से कहा मनुष्य की कोई जाति नहीं है। आप प्रकाशित करिए मे कोई जाति नहीं है। एक और युवा जिसने कहा यहाँ तक कि जानवर भी अपने जाति को पहचानता है। कुत्ता अपनी जाति को जानता है। कितनी दुखद बात कि केवल इन्सान अपनी जाति को नहीं पहचानता।"
 
   एक बार गुरू ट्रेन से यात्रा करते समय उच्च जाति के कहलाने वाले एक यात्री ने गुरू से पूछा "आप का नाम क्या है?" “नारायणन्” अगला प्रश्न “आपकी जाति क्या है?” “क्या आप देख नहीं सकते मैं कौन हूँ?” उत्तर था “नहीं”, “यदि आप देखने से पहचान नहीं सकते तो सुनने से कैसे पहचानेंगे?” श्री नारायण गुरु ने जवाब दिया।
 
   उन्होंने जाति के संबंध में चार पंक्ति वाले दस श्लोक लिखे 'जाति लक्षणम्'। उनमें से एक श्लोक का अनुवाद इस प्रकार है पूछिये, काम पूछिये, गाँव पूछिये, लेकिन जाति नहीं, उसका नाम बाह्य रंग रूप से जानते हो कि वह एक मनुष्य है। जाति के बारे में गुरू का दृढ़ मानना था कि सारे मानव की जाति एक है। अपने उपदेशों में वे अटल थे ‘जाति पूछो मत, जाति बताओं मत और जाती के बारे में सोचो मत’। उनका उद्देश्य था कि उन्होंने जो विद्यालय प्रारंभ किया उसमें सभी जाति के बच्चों को प्रवेश मिले और सब के साथ एक जैसा व्यवहार हो। ऊँची जाति के नेता लोग उनसे मुलाकात करने आये तो गुरू ने उनमें से कुछ छात्रों को बुलाया और संस्कृत में श्लोक सुनाने को कहा। श्लोक सुनाने के बाद गुरू ने उन लोगों से कहा, “अब पहचानों ये बच्चे किस जाति की हैं ?” उन शर्मिन्दा नेताओं के पास कोई जवाब नहीं था।
 
   तब के महाराजा के त्रावणकोर राज्य जो अब केरल का एक भाग है, वैकम नामक स्थान पर एक पुरातन शिव मंदिर था। मंदिर के चारों ओर के आधा मील तक की सड़क जो मंदिर की ओर जाती है वह सड़क तीन शाखाओं में बट कर मंदिर के तीन किनारों को जाती है। उस सड़क पर केवल हिन्दु धर्म के उच्च जाति और अन्य धर्म के लोग जा सकते थे।किन्तु अवर्ण लोगों को अछूत माना जाता था और उनके समीप आने से उच्च जाति के लोग अशुद्ध हो जाते हैं ऐसे माना जाता था। इन लोगों के लिए इन सड़कों पर सूचना पटल पर लिखा रहता था कि ये लोग उन सड़कों का उपयोग नहीं कर सकते।
    
   इस के खिलाफ एक आन्दोलन चलाया जाना चाहिए, इस का श्री नारायण गुरु ने अनुमोदन किया था। गुरू जी का वाइकम के पास वेलूर में एक मठ था। गुरू जी ने सीधे इस मठ को आंदोलनकारियों को, स्वयंसेवकों को दे दिया। गुरू जी स्वयं उस स्थान पर गए और खर्च के लिए उन्हें एक हजार रूपये चन्दा दिया। उन्होंने वरकला में अपने अनुयायियों से घर-घर जाकर चन्दा एकत्रित करने को कहा। वे स्वयं सेवकों के रहने के स्थान पर गये और जहाँ वे सत्याग्रह कर रहे थे, उस स्थान पर भी गये। सी. राजगोपालाचारी (नेता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस) और श्री नारायण गुरु पूर्ण रूप से अहिंसात्मक सत्याग्रह के लिए सहमत थे स्वयंसेवकों को वहाँ पर रूक जाना था जहाँ पर सूचना पटल पर प्रवेश निषेध किया गया है। वे वहाँ पर रूक जायें और जितना अपमानित किया जाये या दूसरे उन पर हिंसात्मक वार करें सब सहते हुए तब तक रहें जब तक उनकी मानसिकता बदलें और यह अमानवीय आदेश हठायें। उच्च वर्ग के नेता लोगों ने भी इस आंदोलन में सहयोग किया लगभग 500 उच्च वर्ग हिन्दु नेताओं ने तिरुवनंतपुरम तक मार्च किया। यह आंदोलन 20 महीने तक जारी रहा। स्वयंसेवकों का पुलिस द्वारा और किराये के गुडों द्वारा दिया गया शारीरिक दंड भी सहना पड़ा। बरसात में, बाढ़ में वे गर्दन तक पानी में डटे रहे। अंत में ट्रेवनकोर सरकार और मंदिर के अधिकारियों ने सड़क सार्वजनिक कर दी । आंदोलन की सफलता के बाद सत्याग्रह को 1925 नवम्बर 23 को समाप्त कर दिया। एक दशाब्दी के बाद 1936 में ट्रावनकोर सरकार ने मंदिरों के दरवाजे सभी हिन्दुओं के लिए खोल दिये। ट्रावनकोर सरकार का एक दशाब्द बाद जो मंदिर प्रवेश की उद्घोषणा हुई उसके लिए वाइकोम सत्याग्रह ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
 
   सामाजिक प्रगति के लिए श्री नारायण गुरु ने तीन उपाय सुझाए थे-संगठन, शिक्षा और औद्योगिक विकास। आज केरल में दिख रहा सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक विकास का श्रेय श्री नारायण गुरु और उनके द्वारा स्थापित श्री नारायण धर्म परिपालन योगम् संस्था को जाता है।
 
 
सुशील दळवी,
सोशल स्टडीज फाऊंडेशन
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