पंचशील और आर्य अष्टांगिक मार्ग

ssf-map    18-Sep-2020
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   भगवन बुद्ध द्वारा उपदेशित धम्म प्रकृति के साथ ही स्वयं के लिए भी सत्य को जानने की शिक्षा है। यह स्वयं को पहचानने का मार्ग दिखता है। भगवन बुद्ध यह मार्गदर्शन करते हैं कि मनुष्य के विचार, आचरण, भाषा और बोलचाल की पद्धति कैसी होनी चाहिए। वे हमें सर्वोच्च प्रज्ञा की प्राप्ति का मार्ग भी बताते हैं। इस प्रज्ञा की सहायता से मनुष्य प्रकृति के नियमों की अनुभूति करता है और अन्धविश्वास से अलिप्त रहता है।
 
   भगवान बुद्ध किसी भी व्यक्ति से विद्वेष करना नहीं सिखाते हैं, अपितु शत्रु से भी प्रेम करना सिखाते हैं, उसके प्रति भी मित्रता और करुणा की भावना उत्पन्न करने की बात सिखाते हैं। भगवान बुद्ध की शिक्षा से जीवन में आने वाली सभी बाधाओं को पार किया जा सकता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन में उत्पन्न सभी प्रश्नों का समाधान खोजने में मनुष्य सक्षम हो सकता है। अपने जीवन में आने वाले सभी प्रसंगों और समस्याओं के निवारण में महात्मा बुद्ध के विचार बहुत मूलयवान हैं।
 
   तथागत कहते हैं, "मैं मोक्षदाता नहीं, बल्कि मार्गदाता हूँ । मैं भी तुम्हारे जैसा ही एक मनुष्य हूँ। जिनके गर्भ से मैंने जन्म लिया वे भी तुम्हारी माता की ही तरह थीं। प्रकृति की भांति जैसे मनुष्य का जन्म होता है, वैसे ही मेरा भी जन्म हुआ है। मुझे जो बोध प्राप्त हुआ है, उसके बीज तुम्हारे भीतर भी हैं। तुम भी अपने प्रयत्न से उसे प्राप्त कर सकते हो। उसका मार्ग मुझे मालूम है, वह मई तुम्हे भी बता सकता हूँ। प्रयत्न तो तुम्हें स्वयं ही करना होगा। अपना निर्माण तुम्हे स्वयं ही करना है। यह तुम्हारी इच्छा पर है कि तुम मेरे बताये मार्ग पर चलते हो कि नहीं। मैं अपना विचार किसी पर थोपता नहीं। तुम्हे अच्छा लगता है, तब स्वीकार करो। केवल मेरे कहने मात्र से उसे अंगीकार मत करो। तुम्हारे विवेक और बुद्धि से जो उचित जान पड़ता है , उसे स्वीकार करो। मैंने तुमसे जो योग्य मार्ग और दिशा बताया है , यह तुम्हे ही निष्चय करना है। मई तो केवल मार्गदर्शक हूँ। "
 
   भगवन बुद्ध द्वारा संसार के मनुष्यों के कल्याण के लिए बताया गया जो माध्यम मार्ग है, वह पंचशील और अष्टांगिक मार्ग है।
बौद्ध धम्म में शील का बहुत महत्त्व है। शील मनुष्य के जीवन के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है। भगवान बुद्ध में सम्पूर्ण मानव जाती के कल्याण के लिए शील का निर्माण किया। शील का तात्पर्य है नैतिक और नीतिमय जीवन का जागरण करना। स्वयं को अथवा किसी अन्य को जिस शारीरिक, मानसिक और वाचिक कार्य से अहित पहुंचता हो, उस कार्य से दूर रहना। शील का अर्थ अनुचित कार्यों से दूर रहना और सद्गुण का मार्ग अपनाना है।
 
   भगवान बुद्ध ने सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण के लिए पंचशील का निर्माण किया है। अपने नित्यप्रति जीवन में जो व्यक्ति पंचशील का अखंड पालन करता है, उसके जीवन में उत्पन्न सभी कष्टों से उसे मुक्ति मिल जाती है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में किसी न किसी कारण से दुःख उत्पन्न होता है। चाहे कोई बौद्ध हो या न हो , पंचशील का पालन करने से उसका जीवन सुखदायी व लाभकारी हो जायेगा।
 
   बौद्ध धम्म में पंचशील तत्त्व के निम्नलिखित प्रमाण हैं -
 
१. पाणातिपाता वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि -
अर्थात मैं जीव हिंसा से अलिप्त रहने की प्रतिज्ञा करता हूँ।
 
 यह पहला और सबसे महत्वपूर्ण शील है। सभी प्राणियों को जीवन का अधिकार है। यह बताने के लिए भगवान बुद्ध ने इस शील को सबसे पहला स्थान दिया है। सभी प्राणियों का जीवन मूल्यवान है। इसलिए प्रकृति द्वारा प्रदत्त जीवन के अधिकार को सबको मान्य करना चाहिए। केवल प्राणियों की हत्या करना ही शील का अर्थ नहीं है। शील का तात्पर्य प्राणिमात्र के लिए मन में करुणा का भाव निर्माण करना है। इसलिए भगवान् बुद्ध कहते हैं , "सबसे प्रेम करोगे तो तुम्हारे मन में किसी की हत्या करने की इच्छा ही नहीं उत्पन्न होगी। "
 
२. अदिन्नादाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि -
अर्थात मैं चोरी करने से अलिप्त रहने की प्रतिज्ञा करता हूँ।
 
इस शील के अनुसार जो वास्तु हमें न प्रदान की गयी हो, उसको न लें। इसमें सभी प्रकार की चोरी का समावेश होता है। कोई भी ली हुयी वास्तु उसके मालिक को लौटाने का प्रयत्न करना ही चाहिए। यदि चोरी करने का प्रयत्न करते हैं तो अदिन्नादाना शील का उल्लंघन होता है।
 
३. कामेसु सुमेच्छाचारा वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि -
अर्थात कामवासना के आचरण से अलिप्त रहने की प्रतिज्ञा करता हूँ।
 
अपनी पत्नी अथवा पति के अतिरिक्त किसी अन्य के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने से इस शील का भंग होता है। अनियतिक सम्बन्ध से मनुष्य दुःख की खाई में गिरता है। समाज में उस व्यक्ति की प्रतिमा मलीन होती है। परिवार में कलह निर्माण होता है। अनैतिक सम्बन्ध रखने वाले स्त्री-पुरुष के विचार में विपरीत प्रभाव पड़ता है, जिसका परिणाम विस्फोटक होता है। अनेक बार वैमनस्य बढ़ता है।
बलात्कार भी अनैतिक सम्बन्ध का ही एक प्रकार है। इससे भी इस शील का उल्लंघन होता है। बलात्कारी व्यक्ति का जीवन दुःख से भर जाता है और उसे दंड भी मिलता है। ऐसे कृत्या से दूर रहने के लिए ही भगवान् बुद्ध ने इस शील का निर्माण किया है।
 
४. मुसावादा वेरमणी , सिक्खापदं समादियामि।
अर्थात मैं असत्य बोलने से अलिप्त रहने की प्रतिज्ञा करता हूँ।
 
निंदा करना, चुगली करना और असत्य बोलना इत्यादि से दूर रहना इसका अंतर्भाव है। कठोर वचन बोलने और बेमतलब के बोलने से कई बार नासमझी का निर्माण होता है। व्यक्ति का परस्पर सम्बन्ध बिगड़ता है। अपनी प्रतिष्ठा नष्ट होती है। झूठा व्यक्ति होने की छाप लग जाती है। अन्य व्यक्ति को भी अनायास तकलीफ सहनी पड़ती है। एक झूठ को छिपाने के लिए अनेक झूठ बोलने पड़ते हैं। इसका व्यक्ति के जीवन पर अनुचित परिणाम पड़ता है।
 
५. सूरा-मेरय -मज्ज पमाद ठाना वेरमणी, सिक्खापदं समादियामि।
अर्थात मैं मद्य, मादक पदार्थ या अन्य नशीली वस्तुओं के सेवन से अलिप्त रहने की प्रतिज्ञा करता हूँ।
 
मद्यपान और अन्य मादक पदार्थों के सेवन से दूर रहना इस शील का अर्थ है। मद्यपान करने से मनुष्य की विचार करने की शक्ति और मन पर नियंत्रण समाप्त हो जाते हैं। मद्यपान करने से संपत्ति का नाश होता है, आपसे कलह बढती है, शारीरिक रोग बढ़ते हैं, अश्लील विचार आते हैं, चरित्र नष्ट होता है और मनुष्य कटी प्रकार के संकट से घिर जाता है। इसलिए व्यक्ति को सभी प्रकार के मादक पदार्थों के सेवन से दूर रहना चाहिए। तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट के सेवन से दूर रहना भी इस शील का पालन करना है।
इस प्रकार तथागत ने मानव कल्याण के लिए पंचशील का निर्माण किया है। इस पंचशील का पालन करने से व्यक्ति का जीवन मंगलमय और सुखकारी होता है।
 
आर्य अष्टांगिक मार्ग -
भगवान बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त करने के उपरांत सबसे प्रथम जो उपदेश दिया , वे ये चार आर्य सत्य थे। आर्य अष्टांगिक मार्ग अर्थात सदाचार का अत्यंत ऊंचा या सर्वश्रेष्ठ मार्ग। बुद्ध के द्वारा बताये गए चार आर्यसत्य इस प्रकार हैं -
१. दुःख है।
२. दुःख का कारण है।
३. दुःख का निवारण है।
४. दुःख निवारण का मार्ग है।
 
   इन चार आर्यसत्यों में सबसे पहले के अनुसार भगवान् बुद्ध दुःख की व्याख्या करते हैं। दूसरे के अनुसार वे दुःख के कारणों की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। इसमें वे बताते हैं कि दुःख उत्पन्न होने के कारण क्या हैं। तीसरे आर्यसत्य में वे बताते हैं कि हरेक दुःख का निवारण होता है। दुःख के निवारण से सुख की प्राप्ति होती है. यह सुख की अवस्था ही निर्वाण की प्राप्ति है। किन्तु निर्वाण प्राप्ति का मार्ग क्या है ? यह मार्ग उन्होंने चौथे आर्यसत्य में बताया है। दुःख निवारण का मार्ग बुद्ध का मध्यम मार्ग है। यही उनका अष्टांगिक मार्ग है। अष्टांगिक मार्ग का अच्छी तरह से पालन करने से सुख प्राप्त होता है। आधुनिक युग में अष्टांगिक मार्ग पर चलकर मनुष्य सुखी हो सकता है, इसमें कोई दो राय नहीं है।
 
आर्य अष्टांगिक मार्ग का उपदेश प्रमुखतः तीन तत्वों पर आधारित है -
१. शील
२. समाधि
३. प्रज्ञा
 
   अष्टांगिक मार्ग जीवन को जगाने की कला है। इस कला को अंगीकार करके सभी व्यक्तियों को अपने भीतर विक्सित करने का प्रयत्न करना चाहिये। यह मार्ग दीर्घकालीन दोषों और व्याधियों के उपचार का मार्ग है। कोई बुद्ध को मानता है या नहीं , यह प्रश्न गौड़ है। किन्तु उनके द्वारा बताया गया मार्ग प्रत्येक व्यक्ति के उत्कर्ष का मार्ग है। यह जीवन को उन्नत करने का दृष्टिकोण है। सांसारिक जीवन में यह दृष्टिकोण अपनाया जा सकता है। इसके लिए केवल अपने मन को
तैयार करना आवश्यक है। निर्धारित मार्ग पर चलते हुए जीवन बदलने की नवीन दृष्टि और वातावरण निर्माण करने की जरुरत है। अर्थात आर्य अष्टांगिक मार्ग के आठ घटकों का क्रमानुसार संक्षिप्त परिचय प्राप्त करना है। जो इस प्रकार से हैं -
 
१. सम्यक दृष्टि -
अष्टांगिक मार्ग का प्रथम घटक सम्यक दृष्टि है। इसका आशय सदाचरण है। लोभ, मोह, द्वेष इत्यादि के मूल को समझना ही सम्यक दृष्टि है। बुद्धि के द्वारा किसी बात को योग्य या अयोग्य मानना सम्यक दृष्टि है। अविद्या का विनाश , विचार और मन को स्वतंत्र रखना , किसी बात पर अनुचित हठ करना तथा उचित आंकलन करना और सत्य को स्वीकार करना सम्यक दृष्टि है।
 
२. सम्यक संकल्प -
सत्य दृष्टि के अनुसार जीवन को सुधारने का संकल्प करना। सम्मुख उच्च आदर्श और ध्येय रखना। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कोई ध्येय, आशा , आकांक्षा और महत्वाकांक्षा होती है , उसकी पूरा करना सम्यक संकल्प है। प्राणी मात्र से प्रेम करना , स्वयं को अथवा किसी अन्य को कष्ट न हो , ऐसी इच्छा रखना सम्यक संकल्प है।
 
३. सम्यक वाणी -
जो भी बोले , सही बोलें। स्वयं का बोलना मधुर हो और दया भाव लिए हुए हो। वाणी विनम्र हो। दूसरों की कभी भी निन्दा न करें। किसी के बारे में असत्य न बोलें। वाणी में प्रेम, दया मित्रता की भावना निहित हो। अपनी वाणी से किसी को कष्ट, दुःख न पहुंचे। एक व्यक्ति को दूसरे से सौजन्यता की बात करनी चाहिए। हमेशा जरुरत भर का ही बोलना चाहिए।
 
४. सम्यक कर्म -
सही कर्म करें। सदाचार का पालन करें। हिंसा, चोरी और व्यभिचार न करें। सम्यक कर्म उचित कर्म सिखाता है। दूसरों की भावना और उसके अधिकार की ध्यान रखते हुए कर्म करें। सद्बुद्धि द्वारा विचार करके ही उचित बात को मानना चाहिए। यही सम्यक कर्म है। अच्छा आचरण करना , अपने कार्य से किसी को कष्ट न पहुँचाना , किसी का अधिकार न छीनना ही सम्यक कर्म है।
 
५. सम्यक आजीविका -
आजीविका का तात्पर्य है जीवन निर्वाह का साधन। इसके बिना कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता। योग्य साधन द्वारा उदरपूर्ति करना चाहिए। मनुष्य की जीविका ऐसी हो , जिससे जीवन का निर्वाह हो सके। किन्तु इससे किसी की हानि न पहुंचे, किसी पर अन्याय न हो। सन्मार्ग पर चलते हुए जीवन निर्वाह करना ही सम्यक आजीविका है।
 
६. सम्यक व्यायाम -
वर्तमान व्यायाम का आशय शारीरिक व्यायाम से लिया जाता है। किन्तु पहले यह प्रतत्न के रूप में व्यवहृत होता था। मन शुद्ध रखना , सत्य में मन लगाना , दुष्ट प्रवृत्ति त्यागकर सत्प्रवृत्ति धारण करना। बुरे कार्य न करना। कुशल प्रवृत्ति की और मन को ले जाना और उसके अनुकूल व्यवहार करते हुए प्रयत्नशील रहना ही सम्यक व्यायाम है। सम्यक व्यायाम का अर्थ अविद्या को नष्ट करना भी है।
 
७. सम्यक स्मृति -
सम्यक स्मृति अर्थात सतत जाग्रत रहना। अपना विवेक जाग्रत अवस्था में रखना। स्वचित्त का अवलोकन करना। अच्छे विचारों का सदैव चिंतन करना। यह ध्यान रखना कि मन में किसी प्रकार की आशक्ति अथवा इच्छा का जन्म न होने पाए। हमेशा सावधान रहना। असावधानी में कोई कार्य न करना ही सम्यक स्मृति है।
 
८. सम्यक समाधि -
चित्त की एकाग्रता ही सम्यक समाधि है। किसी अच्छे कार्य की ओर चित्त को एकाग्र करने का प्रयत्न करना ही सम्यक समाधि है। लाभ, हानि, द्वेष, आलस्य, तंद्रा, संशय, अनिश्चय का बंधन दूर करना सम्यक समाधि है। इससे आत्म रक्षण होता है। अवगुण का नाश होता है। आत्मबल बढ़ता है। असंतोष दूर होता है। यश की प्राप्ति होती है। निर्भयता आती है। आलस्य दूर होता है। राग, द्वेष, मोह नष्ट होता है। मन सदा प्रसन्न रहता है। विनम्रता आती है। अभिमान दूर होता है। उत्साह बढ़ता है। जीवन दीर्घ होता है। सम्यक समाधि से ही मन स्थिर होता है।
 
इस प्रकार से आर्य अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करने दुःख का नाश और सम्पूर्ण मानव का कल्याण होगा। संक्षेप में कहें तो यह मार्ग ही दुःख- मुक्ति का मार्ग है। जीवन को कल्याणकारी करने की चाबी है। यही भगवान् बुद्ध द्वारा बताया गया मध्यम मार्ग है।
 
 
विजय मोरे
(बौद्धचार्य/सामाजिक कार्यकर्ता)
९८६९५५६८६१