राष्ट्रपुरुष – “राजश्री शाहू महाराज”

ssf-map    16-Sep-2020
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राष्ट्रपुरुष – “राजश्री शाहू महाराज”


पूरे भारतवर्ष में, एक व्यक्ति ऐसी नहीं होगी, जो छत्रपति शिवाजी महाराज को, और उनके कर्तुत्व को नहीं जानती।शिवाजी महाराज ने बहुत कठिन परिस्थितियों में हिंदवी स्वराज्य की स्थापना की। भारतवर्ष की भारतीयता को अक्षुण्ण रखने का छत्रपति शिवाजी महाराज का राजनैतिक कार्य महान और अतुलनीय है। वैसे हि राजयोगी शाहू महाराज का सामाजिक कार्य इस भारतभूमि में हुआ।

यशवंतराव नाम के एक बच्चे का जन्म 26 जून 1874 को श्री. जयसिंगराव घाटगे के घर में हुआ था। 10 साल की उम्र में, इस बच्चे को 1884 में कोल्हापुर के भोंसले राजे साहब ने गोद लिया था, जिसका नामकरण “शाहू” किया गया था। अपनी शिक्षा और प्रशिक्षण पूरा करने के बाद, शाहू महाराज ने 1894 में कोल्हापुर के छत्रपति के रूप में राज्य की बागडोर संभाली।

कोल्हापुर संस्थान के छत्रपति शाहू महाराज को छत्रपति शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी के रूप में बहुत इज्जत और सम्मान मिला। यद्यपि शाहू महाराज, जो शक्ति और धन के स्वामी बने, बहुत ही सुंदर, तेजस्वी और भीमकाय थे, उनका जीवन बहुत ही सामान्य और सरल था। उनके बोलने में भी सरलता थी। उनके व्यवहार में राजशाही का कोई दिखावा नहीं था, इसलिए आम लोगों ने उन्हे अपने में से हि एक मानते थे। अत्यंत गरीब, दलित, वंचित लोगोन के प्रति उनके मन में दया और स्नेह था।

यद्यपि अभी सामाजिक स्थिति में भारी बदलाव आया है, लेकिन 1890-1925 का काल बहुत ही बुरा था। भारत, जो सैकड़ों वर्षों से मुगल शासन के अधीन था, अब अंग्रेजों द्वारा गुलाम बना लिया गया था। जब एक ओर ऐसे हालत थे, तभी दुसरी ओर जातिवाद, संप्रदायवाद, भ्रष्टाचार और शिक्षा की कमी पूरे देश में छाई हुई थी। अकाल पड़ा, कोई महामारी फैल गयी, तो हजारों लोग बिना भोजन और बिना इलाज के मर जाते थे। इतनी बड़ी अराजकता में, तारक राजा के रूप में छत्रपति शाहू महाराज सामने आए।

भारतीय समाज को सक्षम और प्रगतिशील बनाना है, तो सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और औद्योगिक मोर्चों पर ठोस कार्रवाई करना जरुरी है, यही गांठ अपने मन में बांध कर छत्रपति शाहू महाराज ने अपने कार्यकाल की शुरुआत की। भले ही शाहू महाराज एक राजा थे, लेकिन उन्हे अंग्रेजों के नियंत्रण में ही काम करना पडता था। इन्ही बातों का ध्यान रखते हुए, छत्रपति शाहू महाराज ने मुंबई के राज्यपाल से लेकर सभी ब्रिटिश अधिकारियों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाये थे।

देश के पतन का कारण जातिवाद, अस्पृश्यता है, वह जब तक नष्ट नहीं हो जाता, तब तक हमारा देश पश्चिमी देशों की तरह तब तक आगे नहीं बढ़ेगा, यह कहते हुए जातिनिर्मुलन का कार्य उन्होने शुरू किया। आर्थिक रूप से सशक्त होना हैं तो दलित, पिछड़े वर्गों को समान अवसर देना आवश्यक है, इस उद्देश्य से उन्होने पिछड़ी जातियों और जनजातियों के लिए नौकरीयो में 50% आरक्षण 26 जुलाई 1902 को घोषित किया। जन्मके कारण अस्वच्छ व्यवसाय हि करणे वाले, अस्पर्श रह गये समाज घटकों को सरकारी कार्यालयों, स्कूलों, अस्पतालों, पुलिस विभागों, डाकघरों के साथ-साथ सीधे अपने महल में विभिन्न पदों पर उन्होने नियुक्त किया। सभी सार्वजनिक स्थानों पर तथाकथित अछूतों को मुफ्त पहुंच दी, और उन्हें प्रतिबंध करने वालों को कड़ी सजा दी।

शाहू महाराज के पास गंगाराम कांबले नाम का एक नौकर था, जो घोड़ों का प्रभारी था। अछुत होते हुए भी, वह महाराज के अत्यंत करीबी था। इससे नाराज अधिकारीयों ने उस पर चोरी का झुटा इल्जाम लगाया, उसे परेशान किया। महाराजा ने उनकी बेगुनाही सिद्द की और उन्हें अपनी सेवा से मुक्त कर दिया। उन्होने उसे एक चौराहे पर एक होटल शुरू करने में मदद की। अछूत के होटल में लोग जाने से बचेंगे, इस चिंता से, महाराज गंगाराम के होटल में गए और जानबूझकर चाय पी, साथ में महल के कई अधिकारी, कर्मचारी और मित्र भी थे। महाराज स्वयं चाय पीते थे, इस लिये अन्य लोग टाल नहीं सके। महाराज की इस कृत्य से जो संदेश फैला, वह केवल सकारात्मक ही था। रोटी व्यवहार हि पर्याप्त नहीं है, किंतु बेटी व्यवहार भी जरुरी है, इस विचार को छत्रपति शाहू महाराज ने अमल में लाया। महाराज ने अपने चचेरी बहन हा विवाह इंदौर के होलकर परिवार में किया। होलकर धनगर चरवाह) थें, लेकिन महाराज ने खुद पहल की और जोरशोर से विवाह समारोह संपन्न किया। महाराज द्वारा कुल पच्चीस अंतरजातीय विवाह किए गए। बाद में उन्होंने अपने राज्य में अंतर-जातीय विवाह का कानून बनाया। महाराज का दृढ़ विश्वास था कि यह देश जाति व्यवस्था के अंत से हि आगे बढेगा।

छत्रपति शाहू महाराज को अपने देश और संस्कृति से बहुत लगाव था। वह स्वदेशी के बारे में आग्रही थे। महाराज ने1908 में कोल्हापुर में एक भव्य समारोह में अपनी बेटी राधाबाई (​​अक्कासाहेब) की शादी की। शादी में कई अंग्रेजी अधिकारी, सैन्य अधिकारी, अडमिरल, कर्नल भी उपस्थित थे। उपस्थितोंका का मनोरंजन करने के लिए स्वदेशी खेलों का आयोजन किया गया था। इसमें कुश्ती, जिम्नास्टिक, डंडापट्टा, सतमारी, घुड़सवारी प्रतियोगिताओं के जीवंत प्रदर्शन हुए। महाराज स्वयं सोने और चांदी के कडे देकर विजेताओं की प्रशंसा कर रहे थे। तब एक युवा राजकुमार जो विदेश में पढा था, उसने सुझाव दिया कि, “आपने गाव के खेलोंका तो आयोजन किया, लेकीन, विदेशी खेल क्रिकेट या टेनिस का आयोजन करना चाहिये था।“ तब शाहू महाराज ने उस युवक की ओर देखा और कहा। “इन अंग्रेज अधिकारियों को अपने स्वदेशी खेलोन्की की पहचान कब होगी? इसके अलावा, यह खेल बहुत महंगा नहीं है और तबियत भी अच्छी रहती है। यदि हम इन स्वदेशी खेलों को बढ़ावा नहीं देना चाहते हैं, तो व्ह कार्य कौन करेगा?” यह उनके स्वदेश प्रती निष्ठा को दर्शाता है, लेकिन उन्होंने सिर्फ बात नहीं की, उन्होंने खासबाग, कोल्हापुर में एक अंतरराष्ट्रीय मानक कुश्ती मैदान स्थापित किया, और वहां कुश्ती प्रतियोगिताओं का आयोजन किया।

शाहू महाराज की अपने देश में उद्योग विकसित करने की तीव्र इच्छा थी। 1902 में वे पहली बार इंग्लंड गए। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने उन्हें एल.एल.डी. यह डिग्री सम्मानपूर्वक प्रदान की गई। इस आयोजन के बाद, महाराज ने यूरोप, इटली, स्कॉटलैंड आदि देशो में रोम, वेनिस और फ्लोरेंस का दौरा किया। यहाँ के कारखाने देखें, नए प्रकार की मशीनरी देखी। उन्हें वेनिस की ग्लास फैक्ट्री पसंद आयी थी, बाद में इसी तरह की ग्लास फैक्ट्री स्थापित करने की कोशिश उन्होने की, बाद में वह हि ओगले ग्लास फैक्ट्री के रूप में सुपरिचित हुई। मधुमक्खी पालन उत्पाद यह एक अभिनव उपक्रम है, ऐसी अवधारणा है, लेकिन महाराजा ने इसे इटली में देखा और भारत लौटने पर इसे सोनतली कॅम्प में ले आए। महाराज को उद्योग जगत का केवल आकर्षण नही था, किंतु इसे वास्तविक बनाने के लिए हर तरह से वे मदद करते थे। इन्ही उद्योगों में से एक था, किर्लोस्कर का लोहे के हल बनाने वाला कारखाना। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान किर्लोस्कर को लोहे का कच्चा माल नहीं मिला। इसलिए फैक्ट्री बंद होने कि नौबत आ गयी थी। तब महाराजा ने अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले किलोंपर पडी जंग लगी तोपों को उन्हें सौंप दिया। वो भी मुफ्त में। तोप पिघलाई गई और लोहे का हल बन गया। शाहू महाराज की दूरदर्शिता के कारण, कारखाना बंद होने से बच गया और कई श्रमिकों को अपनी नौकरी से हाथ धोना नहीं पड़ा। साथ ही, किसानों को लोहे के हल की उपलब्धता से कृषि आय में वृद्धि हो गई।

छत्रपति शाहू ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत अच्छा काम किया। 1901 में गाव से आने वाले विद्यार्थीयों के लिये कोल्हापूर शहर में पहला होस्टेल शुरू किया। देश की शैक्षणिक प्रगति के लिए एक बड़ा महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ। बाद में, महाराज ने विभिन्न जातियों और धर्मों के 24 छात्रावास शुरू किए। सारस्वत ब्राह्मणों से लेकर दलितों, मुसलमानों के लिए छात्रावास शुरू किए। इस लिए उन्होंने कोल्हापुर में महत्वपूर्ण जगहों पर भूमी और भवन दिए। अनुदान देना भी शुरू कर दिया।

वेदोक्त मामला छत्रपति शाहू महाराज के जीवन का एक कड़वा, अपरिहार्य मामला है। जब शाहू महाराज ने इस बात पर आपत्ति जताई कि, महाराज के घर में धार्मिक विधी के दौरान, राजपुरोहित वेदोक्त मंत्र की जगह पुराणोक्त मंत्र कहे जा रहे थे, तो उन्हें बताया गया कि शूद्रों का वेदोक्त मंत्र पर कोई अधिकार नहीं हैं। वे क्षत्रिय नहीं थे, बल्कि एक शूद्र है। इसको लेकर बड़ा हंगामा हुआ। इस बात ने महाराज के मन को काफी आहत किया। उन्होंने कई विद्वानों, धर्ममार्तण्डों से इस विषय पर चर्चा की। लेकीन वह असफल रहे।

वास्तव में, शाहू महाराज एक राजा थे, अपमान करने वाले पुजारी को सजा के रूप में कोडों सें भी मार दिलवा सकते थे। लेकिन उन्होंने सभी मामलों को अत्यंत संयम के साथ संभाला और चुपचाप तीन सदस्यीय आयोग के माध्यम से वेदोक्त मामले में पूछताछ की। हालांकि आयोग ने स्वीकार किया कि शाहू महाराज एक क्षत्रिय थे, फिरभी उन्हें वेदोक्त मंत्रों का अधिकार नहीं मिला।

छत्रपति शाहू महाराज को अपने धर्म और संस्कृति पर अटूट विश्वास था। उन्हें धार्मिक अनुष्ठान पसंद नहीं थे, परंतु जीससे उच्च और निच भेदभाव उत्पन्न होता है, समाज हीन गती प्राप्त कर रहा है, उन सभी बातोंको को वे रोकना चाहते थे। राजा छत्रपति के रूप में, उन्होंने यह सोचकर एक रचनात्मक निर्णय लिया कि हजारों साल की बुरी परंपरा को तोड़ना उनकी जिम्मेदारी है।

देश के प्रमुख धर्मपीठ शंकराचार्य द्वारा संचालित किए जाते थे। हिंदू धर्म में अवांछनीय रीति-रिवाजों, मानदंडों और मान्यताओं के मामले में इस धर्मपीठ के माध्यम से कोई निर्णय नहीं लिया जा रहा था। बल्की अगर कोई निर्णय, समाज या धर्म के मामले में लिया जाये, तो उसका विरोध हि किया जाता था। इसके समाधान के रूप में, छत्रपति शाहू महाराज ने एक नए धर्मपीठ “करवीर पीठ” की स्थापना की। श्री. सदाशिव लक्ष्मण पाटिल को इस करवीर धर्म पीठ के शंकराचार्य के रूप में चुना। सदाशिव पाटिल संस्कृत दर्शन के एक उत्सुक छात्र थे। साथ हि वह ज्ञानी और समाज के प्रती आस्था रखने वाले युवक थे। शाहू महाराज ने वैदिक मंत्रों के उद्घोष में उनका सशास्त्र पट्टाभिषेक किया। ऐसे क्षत्रिय जगदुरु शंकराचार्य के सम्मान में उनके महल में एक विशेष दरबार आयोजित किया गया था। इस कार्यक्रम में शाहू महाराज ने सभी उपस्थित लोगों को समक्ष नये क्षत्रिय जगद्गुरू को झुककर प्रणाम किया था।

सामाजिक भेदभाव से अपना भारतीय समाज विखंडीत करने वाले, धार्मिक हकों को नकारने वाली परंपराओं का उन्होने एक बहुत ही सकारात्मक समाधान निकाला। नये धर्मपीठ कि स्थापना करते हुए, हिंदू धर्म को एक नयी दिशा प्रदान करने वाले, सभी जात पंथ को एक साथ जोडे रखने का महान कार्य करने वाले छत्रपति शाहू महाराज को राजर्षि शाहू कहा जाता है, यह यथायोग्य हैं।

(राजश्री के काम का महत्व को अधोरेखित हो, इस लिए ही लेख में जाति का अपरिहार्य उल्लेख किया गया है)

संजय कांबले

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