लहूजी राघोजी साळवे (14 नवंबर 1794 - 17 फरवरी 1881)

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   लहूजी राघोजी साळवे एक हिंदूस्थानी क्रांतिकारी थे। उन्हें लहूजी वस्ताद के नाम से जाना जाता है। उनका जन्म पुरंदर के किले के किनारे 'पेठ' गाँव में एक मातंग परिवार में हुआ था। मातंग समुदाय में जन्मे लहूजी ने अपने घर के वीर पुरुषों से अनोखी युद्ध कला (मार्शल आर्ट) का प्रशिक्षण प्राप्त किया। लहूजी के पिता का नाम राघोजी साळवे और उनकी माता का नाम विठाबाई था। लहूजी साळवे के पिता राघोजी साळवे युद्ध की कला में बहुत शक्तिशाली व्यक्ति थे। वे शेरों से लड़ने की अपनी क्षमता के लिए उस समय प्रसिद्ध थे। एक बार राघोजी साळवे ने एक शेर के साथ युद्ध किया और पेशवाओं के शाही दरबार में अपने कंधों पर एक जीवित शेर ले गए थे और अपनी विशाल शक्ति का प्रदर्शन किया था। लहुजी के पिता, राघोजी, पेशवा के शिकार टोली के प्रमुख थे और शस्त्रागार विभाग के प्रभारी भी थे।
 
   लहूजी के पूर्वज सेना में आनन्दित थे। चूंकि साळवे परिवार सशस्त्र शिक्षा में कुशल और शक्तिशाली थे, इसलिए छत्रपती शिवाजी महाराज ने अपने कार्यकाल के दौरान लहुजी के पूर्वजों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी थीं। छत्रपती शिवाजी महाराज ने, अपने कार्यकाल के दौरान साळवे परिवार की खूबियों को पहचानते हुए, पुरंदर किले की सुरक्षा का दायित्व लहूजी साळवे के दादा को सौंपा था। पुरंदर किले की सुरक्षा के लिए साळवे परिवार के कई बहादुर लोगों ने अपना बलिदान दिया था। छत्रपती शिवाजी महाराज ने लहूजी के पूर्वजों को उनकी उत्कृष्ट उपलब्धियों के कारण 'राऊत' यह उपाधि से सम्मानित किया था। लहूजी अनेक पशु-पक्षीयों के बखुबी आवाज निकालते थे। इन हुनरों के कारण पिताजी युद्ध के समय लहुजी को युद्ध स्थान पर ले जाते थे।
 
   5 नवंबर,1817 को पेशवाओं ने खड़की में माउंट स्टुअर्ट एलफिस्टन के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना के खिलाफ भीषण युद्ध किया। 12 दिनों तक राघोजी और 23 साल के लहुजी ने अपने मावलों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ जमकर लड़ाई लड़ी। लहूजी के पिता राघोजी साळवे हवा की गति की तरह दुश्मन पर टूट पडे थे और अपनी तलवार से दुश्मन को जमीन पर पटक रहे थे। फिर 17 नवंबर, 1817 को लड़ते हुए भयभीत अंग्रेजों ने एक साथ हमला किया और राघोजी की हत्या कर दी। वह जमीन पर गिर गये, और राघोजी लहूजी के सामने अंग्रेजों द्वारा शहीद हो गए। पेशवा पराजित हुए। इस हार ने लहुजी के दिल में आज़ादी की लौ जला दी। अपने पिता को अपनी आंखों के सामने शहीद होते देखकर, लहुजी ने अपने पूरे जीवन के लिए ब्रह्मचारी रहने और मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड़ने का फैसला किया। लहूजी ने प्रतिज्ञा ली कि,"जीऊँगा तो देश के लिए और मरुँगा तो देश के लिए"। उन्होंने व अपने वीरपुरुष स्वर्गिय पिता की समाधि तैयार की। यह समाधि अभी भी पुणे-शिवाजीनगर के पास वाकडेवाडी में स्थित है। बाद में 1818 में, मराठा साम्राज्य के भगवा ध्वज को शनिवारवाड़ा से हटा दिया गया और ब्रिटिश सेना के यूनियन जॅक ने उसकी जगह ली।
 
   स्वतंत्रता की आस और देशभक्ति ने लहूजी को अपने पिता की मृत्यु के दुख से बाहर निकाला। कदमों की लपटें अब और तेज हो गईं। उन्होंने पुणे के गंजपेठ में एक व्यायामशाला (प्रशिक्षण शाला) शुरू कि (1823)। गुप्त हथियारों के प्रशिक्षण के लिए गुलटेकड़ी क्षेत्र में एकांत, घनी झाड़ी में एक स्थान चुना। युवाओं को कुश्ती के साथ हथियारों का प्रशिक्षण, भारतीय परंपरागत युद्ध कला सिखाना शुरू किया। प्रशिक्षण के लिए इस प्रशिक्षण केंद्र में हर समाज के युवा आने लगे। इनमें जोतिबा फुले, वासुदेव बलवंत फड़के, गोपाल गणेश आगरकर, बाळ गंगाधर टिळक, चापेकर बंधु, क्रांतिभाऊ खरे, क्रांतिवीर नाना दरबारे, राव बहादुर सदाशिवराव गोवंदे, नाना मोरोजी, क्रांतिवीर मोरो विठ्ठल बलवेकर, क्रांतिवीर नाना छत्रे, उमाजी नाईक, म. फुले के सहयोगी वालवेकर और परांजपे शामिल थे।
 
   लहुजी ने अंग्रेजो की दृष्टी से तत्कालीन विद्रोहियों और लुटेरी जातीया बेरड, रामोशी एवं घुमन्तु जातियों को सातारा, कराड, सांगली, कोल्हापुर, पंढरपुर, सोलापुर और पुणे प्रांतों से एक साथ लाया और उनमें स्वतंत्रता का बीज बोया। इन सभी को देशभक्ती, स्वतंत्रता क्या होती है? इस बात को समझाने की कोशिश की। उस समय सत्तू नाईक की गिरोह डकैती का नेतृत्व कर रही थी। उन्होंने सत्तू को क्रांतिवीर उमाजी नाईक और वासुदेव फड़के की मदद करने के लिए समझाया। उनमें से अनेक 1857 के विद्रोह में क्रांतिकारी बनकर शामिल हुए थे, जिन्हें लहूजी ने प्रशिक्षित किया था। और उन्हें अंग्रेजों ने मौत या आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
 
   लहूजी कुश्ती, तलवारबाजी, घुड़सवारी, निशानेबाजी इन सभी युद्ध कला के विशेषज्ञ थे। लहूजी के टोंड शरीर और उनकी पूरी छाती को देखकर दुश्मन भी पसीने से तर-बतर हो जाता था। वे घातक हथियारों को खिलौने की तरह चलाते है। पिता की मृत्यू और अंग्रेजों से हार लहूजी को असहनीय लग रही थी। पराक्रमी राजवंश के लाहौजियों ने अंग्रेजों को हराने और देश की आजादी के लिए एक 'चरमपंथी क्रांतिकारी' बनाने का फैसला किया। उसके लिए लहूजी ने उन्हें युद्ध कला सिखाई। लहुजी द्वारा युद्धकला प्रशिक्षित टिळक, चाफेकर, सावरकर से प्रेरणा लेकर क्रांतिसिंह नाना पाटिल ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया।
 
   लहूजी ने सामाजिक कार्यों में महात्मा फुले के साथ सहयोग किया। महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों के लिए एक स्कूल (1848) की स्थापना की थी। लहूजी के शिष्यो के संरक्षण में वह स्कुल रोज सावित्रीबाई चला रही थीं। लहूजी ने अपनी भतीजी मुक्ता को उस स्कूल में भेजा और वंचित समाज के रानाबा की मदद से अन्य कई लड़कियों को स्कूल में प्रवेश दिलाया। मुक्ता ने उस समय दलितों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए एक लेख लिखा था, यह लेख ज्ञानोदय पत्रिका (1855) में प्रकाशित हुआ था। इससे लहूजी और फुले दंपति भी प्रभावित थे।
 
   सन 20 जुलाई,1879 को, अंग्रेजों ने वासुदेव बलवंत फड़के को गिरफ्तार किया, जब वह देवर्नवाडगा में सो रहे थे। उन पर राजद्रोह के आरोप लगाया। सन 7 नवंबर, 1879 को वासुदेव फड़के को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। उससे लहूजी बहोत चिंतित हो गए। इस कारण से लहूजी साळवे को पुणे के संगमपुरा इलाके में एक झोपड़ी में आराम करने के लिए रखा गया। केवल तेरह महीने बाद वही पर 17 फरवरी, 1881 को लहूजी शांत हो गये, एक महान क्रांतिपर्व का अंत हो गया। संगमवाड़ी (पुणे) में क्रांतिवीर लहुजी साळवे की समाधि है।
प्रा.डॉ. उमेश अशोक शिंदे, नंदुरबार
9422735540