भारतीय संस्कृति की विलक्षणता इस की विभिन्नता में पड़ी है। विभिन्नता की ख़ूबसूरती यह है कि यह मानवता को सरवसांझे सूत्र में बाँधती है। इस सरवसांझे सूत्र का आधार है भारतीय दर्शन शास्त्र, यहाँ की प्राचीन और समृद्ध आध्यात्मिक परंपराओं और यहाँ की ऐसीं रीत जो मानवता को अंदर तक समभाव और समता भाव के साथ प्रनाऐ हुए हैं। भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक परंपराऐ मूल रूप में एक ही हैं चाहे इस की प्राप्ति के साधन, स्रोत और साधना पद्धतियों के पड़ाव विविधता भरे हैं। यही कारण है कि मौजूदा समय में मूल रूप इन विविधता के ढंग-तरीकों में कहीं लुप्त होता जा रहा है और इस का प्रकाश या ज्योति दिन प्रति दिन कम होती जाती है। इस के कारण ही आज भारतीय विभिन्नता, जो मानव को सरबसांझे सूत्र में पिरोई बैठी थी आज सम्प्रदायकता का रूप धारण करती जा रही है।
लम्बा समय भारत वर्श ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा और इस पर लगातार विदेशी हमले होते रहे, जिस ने यहाँ की समाजक-संस्कृतिक बनावट को बहुत प्रभावित किया। जैसे-जैसे समय बतीत होता गया इस में बहुत सी कुरीतियों, कर्मकांड और कुरूपता ने प्रवेश कीया, इस का मुख्य कारण समय के शासक वर्ग ने सत्ता प्राप्ति के लिए निजता को पहल दी गई। उनके निजी स्वार्थ के कारण आम जन को बहुत कष्ट भोगने पड़े। इस के बावजूद भी भारतीय संस्कृति ने अपने स्वभाव और स्वरूप के अनुरूप परतंत्र के विकासशील और उदारवादी सुभव को अपने में जज़्ब कर लिया जिस के फलस्वरूप भारतीय दर्शन शास्त्र, ज्ञान परंपरा, आध्यात्मिक परंपराऐ और साधना पद्धतियों में इस नवीन ज्ञानात्मिक स्त्रोतों का आगमन हुआ। भारतीय समाज सभ्याचार की चल रही निरंतर ज्ञान धारा ने इस को फिर भी किसी न किसी रूप में संभाल रखा और यह अपने मूल रूप से जुडा रहा। हमारे वेद शास्त्रों से लेकर उपनिशद तक के विकास कर्म को गीता दर्शन और फिर इस से आगे चल कर भक्ति लहर के भक्तों ने अपनी अति कठिन साधना द्वारा इस को हमारे तक पहुँचाया। भक्ति लहर की शिखर कहे जाने वाले सरबत के भले की मंगल कामना के संस्थापक, नाम जपो, काम करो और वंड छको का अनुप्रयुक्त मंत्र देने वाले सर्व सांझेदारी के युग पुरुष श्री गुरु नानक देव जी के आगमन के साथ एक बार फिर से भारतीय संस्कृति को अपने रु-ब-रु होने का अवसर प्रधान हुआ।
गुरु नानक देव जी ने एक बार फिर से मानवता को सदैव के लिए सरबसांझे सूत्र में पिरोया। श्री गुरु नानक देव जी का जीवन, दर्शन शास्त्र और कर्म सिद्धांत मानवता के लिए ऐसा संदेश है जो निजता से निरलेप होकर ब्रह्मांड के समूह पसारे को अपने-आप में आत्मसात करता है। उन का ज्ञान चिंतन मानव, कुदरत, जीव- जंतू और ब्रह्मांड आदि में किसी तरह के भेदभाव को स्वीकार न करता हुआ केवल ब्रह्म स्वरूप परमात्मा की एक ज्योति मानता है।
भारतीय मध्काली समाज सभ्याचार में गुरू साहब के आगमन को विशेष और विलक्षण स्थान प्राप्त हुआ। इस का प्रमुख कारण गुरू साहब का भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में दिया गया ऐसा ज्ञान चिंतन है जिस ने भारत बर्ष की खेरूं-खेरूं हो रही सर्वभोमिक संस्कृति को एक बार फिर से अपनी रुहानियत और बुद्धि बल के ज्ञान द्वारा सत्य के मनकों में हमेशा के लिए जड़ दिया। उनकी रुहानियत, बौद्धिक बल और आत्म ज्ञान के सुचे मोती आज भी भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक परंपरा को सर्वसांझेसूत्र में आत्मसात किए हुए हैं। गुरू साहब ने अपने गहन अध्ययन, अनुभव, साधना पद्धति और संवाद विधि द्वारा समूचे ब्रह्मांड को अपने चिंतन का विषय बनाया। इस की प्रतिनिधित्वा उनकी सम्पूर्ण वाणी करती है। सार रूप में गुरू साहब की वाणी 'जपुजी साहब' उन की दार्शनिक रचना है जो सूत्रिक रूप में ब्रह्म के स्वरूप, स्वभाव और गुणों का वर्णन करती हुई ब्रह्मांड का साकार रूप में दर्शन करवा कर सम्पूर्ण सृष्टि के रहस्सातमक भेद को उभारती हुई मानव की होंद और उस के बुनियादी प्रश्नों को हल करती है। सार रूप में इस वाणी में भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक चिंतन धारा को सुत्रबद्ध कीया गया है। यह गुरू साहब की कठिन जीवन साधना और गंभीर अध्ययन का निचोड़ है। यही कारण है कि इस को गुरमति दर्शन का निचोड़ कहा जाता है।
गुरू साहब ने अपनी वाणी 'जपुजी साहब' के आरंभ में ही समूचे ब्रह्मांड के स्वरूप और स्वभाव अर्थात उस पारब्रह्म परमात्मा के संकल्प को व्यक्त करने से पहले उस की सर्व सम्पन और सर्व व्यापक सत्ता को एक माना। गुरू साहब का अध्ययन, आध्यात्मिक अनुभव और साधना की परिपक्ता उन के 'जपुजी साहब' के मूल मंत्र का आरंभिक शब्द एक से ही प्रकट हो जाती है। उन्हों ने ओम ध्वनि अर्थात ओंकार के प्रयोग से पहले इस के साथ एक लगा कर भारत वर्ष की एकता और अखंडता के संदेश को परिपक् कीया। गुरू साहब की ऐसी चिंतन दृष्टि से स्पष्ट होता है कि वह भौतिकता से ले कर पराभौतिकता तक के समूचे दृश्य में एक ईश्वरीय सत्ता को स्थापित करके अपना-आप उसे समर्पत करते हुए फिर एक ओंकार के ज्ञान मार्ग का संदेश देना आरंभ करते है। इस का भाव यह हुआ कि वह अपने-आप को भी किसी तरह का दर्जा नहीं देते या अपने आप को गुरू, पीर, फ़कीर नहीं कहते बल्कि अपने-आप को बार-बार यह कह कर संबोधन करते हैं, नानक ता का दास है वास्तव में गुरू साहब ने अपना-आप संपूर्ण रूप में परमात्मा के आगे समर्पण कीया और उसको आत्मसात कीया। गुरू साहब उस सर्वव्यापक एक ईशवरी सत्ता की एकता को बयान करते हुए दक्षिणी ओंकार वाणी में लिखते हैं:
ओअंकारि सबिद उधरे॥ ओअंकारि गुरमुखि तरे॥
ओनम अखर सुणहु बीचारु॥ ओनम अखरु तिर्भवण सारु॥१॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-930
गुरू साहब ने ओम धुनि को ओनम अक्षर त्रिभवन सार के रूप में इस्तेमाल कीया। जिस का अर्थ है कि ओंकार अक्षर तीनों लोगों भाव पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल का सार है। इस ओंकार के साथ एक का प्रयोग करके उसे एक ओंकार उच्चारण करा जो जपुजी साहब के आरंभक मूल मंत्र में दर्ज है। गुरू साहब के इस एक लगाने के सम्बन्धित विचार भाई गुरदास जी ने भी अपनी वार की पहली पद में इस तरह किया है:
एकंकारु इकांरा लिखी ऊड़ा ईश्वर लिखाया।।
इस वार से स्पष्ट होता है कि गुरू साहब ने '१' चिह्न का प्रयोग एक इंकार के लिए और 'ਓ' चिह्न का प्रयोग ओंकार के लिए कीया।
श्री गुरु नानक देव जी की तरफ से इस्तेमाल करे गए एक ओंकार को समझने के लिए हम 'आदि श्री गुरु ग्रंथ साहब' की कुछ पंक्तिया गुरू साहब के हवाले के साथ देखते है उनका फ़रमान है कि:
एकम एकंकारु निराला॥ अमरु अजोनी जाति न जाला॥
अगम अगोचरु रूपु न रेखिआ॥ खोजत खोजत घटि घटि देखिआ॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-838
गुरू साहब ने एक चिह्न का प्रयोग अमर, अजन्मा, अगम, अगोचर, रूप-रेखा से रहित निर्गुण ब्रह्म के लिए ही कीया है जिस की प्राप्ति मानव ने अपने अंदर से ही करनी है। इस लिए गुरू साहब आगे चल कर फरमाते हैं:
इसु एके का जाणै भेउ ॥
आपे करता आपे देउ ॥८॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-930
गुरू साहब के अनुसार यदि कोई इस एक ओंकार (निर्गुण) का यदि कोई भेद जान ले कि वह समूचे समाज को सिरजणवाला है
तो वह खुद ही जोति स्वरूप गुरू या ब्रह्म है।
निरंकार आकार आपि निरगुन सरगुन एक॥
एकहि एक बखाननो नानक एक अनेक॥१॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-838
गुरू साहब के आगमन से पहले लगभग एक हज़ार साल अर्थात पाँचवी सदी से लेकर पन्दरवीं सदी तक भारत में भक्ति लहर का खूब प्रचार और प्रसार हुआ। आदि जगतगुरू शंकराचारिया से इस का आरंभ हुआ जिस ने अद्वैत दर्शन का सूत्र पेश कीया आगे चल कर यह परंपरा भक्ति लहर में निर्गुण और सरगुण धारा तक अपना विकास करती है। भक्ति लहर के सरगुण धारा के संतों ने चाहे अपने ब्रह्म के साकार रूप को चितव्या परन्तु वास्तविक रूप में उन्होंने एक ब्रह्म के संकल्प को ही दृढ़ करवाया।
भक्ति लहर का समय क्योंकि ग्यारहवी-बारहवीं सदी में भारत पर इस्लामी हमले हुए और उत्तर-पश्चिम का बहुत हिस्सा इन के अधीन आया। भारत की कट्टर ब्राह्मणी संस्कृति के प्रत्युत्तर में भक्ति लहर के संतों ने जिस तरह उदारवादी और मानववादी सामाजिक दर्शन की न्यायिक और तर्क संगत उसारी की उसी तरह कट्टर इस्लामी धर्म की उदारवादी और मानववादी व्याख्या इन में से उठे सूफ़ी संतों ने की। भक्ति लहर इन दोनों उदारवादी और मानववादी, सामाजिक और रूहानी दर्शन में से अपना रूप ग्रहण करती है।
इन भक्तों ने उस समय भारतीय समाज-सभ्याचार में रुड हो चुकी परंपराओं को जड से ही त्यागा। भक्ति लहर के संतों, गुरूयों और फकीरों ने अपने रूहानी प्रवचन को लोग भाषा के माध्यम द्वारा प्रचार कीया। परमात्मा का गुण-गान करने के लिए इन भक्तों ने उस समय समाज में प्रचलित हर तरह की बुराईआं भेद-भाव का विरोध कीया।
गुरू साहब ने अपने समय की ऐतिहासिक और सामाजिक स्थिति को समझते हुए मानवता के मार्ग दर्शन के लिए, उन को एक सूत्र में पिरोने के लिए, ओंकार शब्द के साथ एक लगा कर उन्होंने यह सार्थक कार्य कीया। वह समाज में फैली हर तरह की भ्रांतियें, भिन्न-भिन्नतावें और सामाजिक स्तर पर भेद-भाव को हमेशा के लिए ख़त्म करना चाहते थे। गुरू साहब का ब्रह्म सोमरस, रंग और स्वभाव का कर्ता भी है और उस में समाया भी है। इस लिए वह फरमाते हैं:
एको एकु कहै सभु कोई हउमै गरबु विआपै॥
अंतिर बाहिर एकु पछाणै इउ घरु महलु सिञापै॥
पर्भु नेड़ै हिर दूरि न जाणहु एको सिर्सिट सबाई॥
एकंकारु अवरु नही दूजा नानक एकु समाई॥५॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-930
एकु अचारु रंगु इकु रूपु॥पउण पाणी अगनी असरूपु॥
एको भवरु भवै तिहु लोइ॥एको बूझै सूझै पति होइ॥
गिआनु धिआनु ले समसिर रहै॥गुरमुखि एकु विरला को लहै॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-930
श्री गुरु नानक देव जी की रुहानियत के ओम चिह्न की एकता ही वास्तव में उन के उस सामाजिक दर्शन का आधार है जो सामाजिक स्तर पर सभ को एक सांझे सूत्र में बाँधती है। यही नहीं इस ੴ के संकल्प के द्वारा मानव अपने-आप प्रकृति के साथ भी समरसता के भाव में जुड़ता जाता है। उन की यह देन निरसंदेह एक ऐसा कार्य था जिस ने भारतीय एकता और अखंडता को सर्व सांझेदारी में एकत्रित किया।
हमारी विडंबना यह है कि पाँच सौ पचास सालों उपरांत भी हम समाज-संस्कृतिक स्तर पर खंड-खंड हो चुके हैं। ऐसी स्थिति सिर्फ़ भारतीय समाज- सभ्याचार की नहीं है बल्कि विश्व स्तर पर धर्म, नसल और रंग के आधार पर आपसी टकराव बढ़ रहे हैं। ऐसे अति कुरूप समय में अगर कोई सामाजिक और रूहानी माडल समुह लुकाई को कोई सार्थक दिशा देने के समर्थ है तो वह है श्री गुरु नानक देव जी द्वारा दिया गया एक ओंकार का संकल्प।
गुरू साहब ने हिंदु मुस्लिम एकता के लिए उन के कर्म, धर्म के सिद्धांतों की वास्तविकता को बयान कीया है न कि उन के धर्म और कर्म पर व्यंग्य किया है। उन्हों ने यह कहा कि अगर हिंदु है तो उस का कर्म और धर्म कैसा होना चाहिए अगर वह मुस्लिम है तो उस का कर्म और धर्म किस तरह का होना चाहिए। दोनों को एक ओंकार की सत्ता के नीचे अभेद होने का संदेश दिया।
ऐसे समय में जोगीयों, नाथों और सिधओ ने एकांतवासी होने का मार्ग चुना और लोगों का मार्ग दर्शन करने की जगह उन को सन्यास का मार्ग दिखा रहे थे। परंतु सिधो, नाथों और जोगीयो की त्रिशनावें को उन का एकांत भी शांत न कर सका। ऐसे समय में गुरू साहब ने मुसलमान, हिंदु और सिधो को सत्य स्वरूप परमात्मा के साथ जोड़ने के लिए सच्ची मानवता का पाठ पढ़ाया। उन्हों ने मुसलमानों की भौतिक सत्ता को ललकारते हुए ब्रह्म की सत्ता को स्थापित कीया और हिंदु मुस्लिम एकता की स्थापति के लिए उन्होंने सब से पहला वाक्य उच्चारण करा:
न कोई हिंदु न मुसलमान।
इस से स्पष्ट है कि गुरू साहब का संदेश समूह मानवता को एक करना है। इस लिए वह हिंदु-मुस्लिम झगड़े को मिटाने के लिए दोनों के कर्म- धर्म के करममांड पर व्यंग्य करते हुए उस के असली सार को समझाते हैं। गुरू साहब सच्चे मुसलमान की आस्था और उस की पाँच वक्त की नमाज़ को दृढ़ करवाया कि नवाज किस तरह करनी चाहिए:
1. मुसलमाणु कहावणु मुसकलु जा होइ ता मुसलमाणु कहावै ॥
अविल अउिल दीनु किर मिठा मसकल माना मालु मुसावै ॥
होइ मुसिलमु दीन मुहाणै मरण जीवण का भरमु चुकावै ॥
रब की रजाइ मंने सिर उपिर करता मंने आपु गवावै ॥
तउ नानक सरब जीआ मिहरमित होइ त मुसलमाणु कहावै॥१॥
ग़ुरु ग़्रंथ साहिब जी, अंग-141
2. मिहर मसीति सिदकु मुसला हकु हलालु कुराणु॥
सरम सुंनित सीलु रोजा होहु मुसलमाणु॥
करणी काबा सचु पीरु कलमा करम निवाज॥
तसबी सा तिसु भावसी नानक रखै लाज॥१॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-140
3 पंजि निवाजा वखत पंजि पंजा पंजे नाउ॥
पिहला सचु हलाल दुइ तीजा खैर खुदाइ॥
चउथी नीअित रासि मनु पंजवी सिफित सनाइ॥
करणी कलमा आिख कै ता मुसलमाणु सदाइ॥
नानक जेते कूड़िआर कूड़ै कूड़ी पाइ॥३॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-141
ब्रह्मणवाद को नकारते हुए ब्रह्म के स्वरूप को रूप रेखा से रहित बताया और इस तरह गुरू साहब ने हिंदुयों के कर्मकांड प्रति भी व्यंग्य करते हुए उस के सार को पेश किया है:
ओनम अखरु तिर्भवण सारु॥१॥
सुणि पाडे किआ लिखहु जंजाला॥
लिखु राम नाम गुरमुखि गोपाला॥१॥रहाउ॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-930
दइआ कपाह संतोखु सूतु जतु गंढी सतु वटु॥
एहु जनेऊ जीअ का हई त पाडे घतु॥
ना एहु तुटै न मलु लगै ना एहु जलै न जाइ॥
धंनु सु माणस नानका जो गिल चले पाइ॥
चउकिड़ मुलि अणाइआ बहि चउकै पाइआ॥
सिखा कंनि चड़ाईआ गुरु बाहमणु थिआ॥
ओहु मुआ ओहु झडी पइआ वेतगा गइआ॥१॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-471
गऊ बिराहमण कउ करु लावहु गोबिर तरणु न जाई॥
धोती टिका तै जपमाली धानु मलेछां खाई॥
अंतिर पूजा पड़िह कतेबा संजमु तुरका भाई॥ छोडीले पाखंडा॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-471
तिन घरि बर्हमण पूरहि नाद॥
उन्हा भि आविह ओई साद॥
कूड़ी रासि कूड़ा वापारु॥
कूड़ु बोलि करिह आहारु॥
सरम धरम का डेरा दूरि॥
नानक कूड़ु रहिआ भरपूरि॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-471
जे करि सूतकु मंनीऐ सभ तै सूतकु होइ॥
गोहे अतै लकड़ी अंदरि कीड़ा होइ॥
जेते दाणे अंन के जीआ बाझु न कोइ॥
पहिला पाणी जीउ है जितु हरिआ सभु कोइ॥
सूतकु किउ करि रखीऐ सूतकु पवै रसोइ॥
नानक सूतकु एव न उतरै गिआनु उतारे धोइ॥१॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-472
मन का सूतकु लोभु है जिहवा सूतकु कूड़ु॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-472
सिधो के करामाती ज्ञान की जगह ब्रह्म ज्ञान को आत्मसात करने का संदेश दिया। ऐसे समय में सिद्धियों, नाथों और जोगीया की चल रही परंपरा जो अपने-आप को समाजिकता से अलग करके बहुत ज्ञानवान समझते थे उन को भी गुरू साहब समझाते हैं:
मुंदा संतोखु सरमु पतु झोली धिआन की करिह बिभूति॥
खिथा कालु कुआरी काइआ जुगित डंडा परतीति॥
आई पंथी सगल जमाती मिन जीतै जगु जीतु॥
आदेसु तिसै आदेसु॥
आदि अनीलु अनादि अनाहित जुगु जुगु एको वेसु॥२८॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-1022
अपनों करामातों दिखा कर, अपने-आप को सृष्टि का ओर लोकइ का गुरू समझने वाले इन सिद्धियों समझाते हुए गुरू जी कहते हैं:
i. मोहु अरु भरमु तजहु तुम् बीर॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-356
ii. सबदु गुरू सुरित धुनि चेला॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-943
iii. एका माई जुगित विआई तिनि चेले परवाणु॥
इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीबाणु॥
जिव तिसु भावै तिवै चलावै जिव होवै फुरमाणु॥
ओहु वेखै ओना नदिर न आवै बहुता एहु विडाणु॥
आदेसु तिसै आदेसु॥ आदि अनीलु अनादि अनाहित जुगु जुगु एको वेसु॥३०॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-7
इन तीनों के कर्मकांड और बाहर-प्रमुख ज्ञान को अंत्र-प्रमुख ज्ञान की धार नीचे लेते हुए गुरू साहब फरमाते हैं:
कवणु सु वेला वखतु कवणु कवण थिति कवणु वारु॥
कविण सि रुती माहु कवणु जितु होआ आकारु॥
वेल न पाईआ पंडती जि होवै लेखु पुराणु॥
वखतु न पाइओ कादीआ जि लिखिन लेखु कुराणु॥
थिति वारु ना जोगी जाणै रुति माहु ना कोई॥
जा करता सिरठी कउ साजे आपे जाणै सोई॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-53
गुरू साहब की चिंतन दृष्टि को देखते हुए यह कह सकते हैं कि उन्होंने भारत की एकता और अखंडता को कायम रखने के लिए हर तरह की मानव विरोधी शक्तियों का विरोध किया। यह शक्तियों चाहे सामाजिक स्तर पर हो, धार्मिक स्तर पर हो, राजनैतिक या आर्थिक स्तर पर हो, उन्होंने सरबव्यापक परमात्मा की सत्ता की स्थापति की। परतंत्र की सत्ता को चुन्नोती दी हिंदुयों के धार्मिक कर्मकांड की धज्जियाँ उड़ाई और सिद्धो और नाथों के एकांतवासी त्रिशनावें के विरोध में ग्रहसथ का मार्ग दृढ़ करवाया और उन की कर्मकांडी करामातों की निंदा करते हुए उन्हों ने सर्व सम्पन्न, सर्व व्यापक, ब्रह्म के स्वरूप ੴ परमात्मा के लड़ लगाया। गुरू साहब फरमाते हैं:
एकु तू होरि वेस बहुतेरे॥ नानकु जाणै चोज न तेरे॥४॥
ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अंग-356
एस प्रकार श्री गुरु नानक देव जी ने अपनी रुहानियत में ੴ के चिह्न की एकता को ही वास्तव में सामाजिक दर्शन को आधार स्थापित कीया है और सामाजिक स्तर पर सभ को एक सांझे सूत्र में बांधा है। यही नहीं इस ੴ के संकल्प के द्वारा मानव अपने-आप प्रकृति के साथ भी समरसता के भाव में जुड़ता जाता है। ऊनकी यह देन निरसंदेह एक ऐसा कार्य था जिस ने भारतीय ऐकातमता और अखंडता को सर्वसांझेदारी में एकत्रित कीया।
संदर्भ
1. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-930
2. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-838
3. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-930
4. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-930
5. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-838
6. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-930
7. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-141
8. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-140
9. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-141
10. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-930
11. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-471
12. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-471
13. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-471
14. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-472
15. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-472
16. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-1022
17. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-356
18. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-943
19. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-07
20. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-53
21. ग़ुरु ग़्रंथ सहिब जी, अनग-356
Dr. Lakhvir Lezia
Assistant Professor
Department of Punjabi
School of Punjabi Languages,Literature and Culture-reg
Central University of Punjab,Bathinda
City Campus, Mansa Road, Bathinda
Mob-75890-88435