गुरू नानक देव मध्यकालीन भारत के उन क्रांतिकारी धर्म प्रवर्तकों में से हैं जिन्होंने अपने आध्यात्मिक संदेश द्वारा तत्कालीन मानव समाज को मूल्यवान नई दिशाएं प्रदान कीं। वे संसार के सबसे आधुनिक धर्म, अर्थात सिक्ख धर्म, के संस्थापक और आदि गुरु हैं। उनके द्वारा स्थापित किये गये इस धर्म की प्रमुख विशेषता यह है कि यह भारत की उस प्राचीन और जीवंत सभ्यता का अंग है जिसका प्रादुर्भाव आज से तक़रीबन दस हज़ार साल पहले, भारतीय उप-महाद्वीप के सप्तसिंधु क्षेत्र में हुआ था। भारत की इस सभ्यता के अंतर्गत चार प्रमुख धार्मिक परंपराएं विकसित हुई हैं - सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिक्ख धर्म। निस्संदेह इन चारों धर्मों ने विश्व में अपनी स्वतंत्र वैश्विक पहचान स्थापित की है, फिर भी, इन परंपराओं में पंथ, मत और साधना-पद्धति की भिन्नताओं के बावजूद विश्व-दृष्टि और जीवनशैली की समानता के अनेकों सूत्र भी दृष्टिगत होते हैं जो विभिन्नता में एकता की यह खूबसूरत मिसाल प्रस्तुत करते हैं। भारत की यह सनातन परंपरा धर्म केंद्रित और ज्ञान आधारित है। इस परंपरा के अंतर्गत धर्म का अर्थ रिलिजन (religion) अथवा मज़हब नहीं है। यह मानव जीवन को नैतिक आधार प्रदान करने वाले उस विराट विधान की ओर संकेत करता है जो संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। भारतीय सभ्यता ब्रहम के रूप में जीवन और यथार्थ के परम सत्य की संकल्पना पेश करती है और इसके अनुरूप ही मानव जीवन के परमार्थ की व्याख्या प्रस्तुत करती है।
एक अद्वितीय धर्म प्रवर्तक के रूप में, गुरु नानक देव जी की विशेषता यह है कि वे मध्यकालीन भारत की उस नव-जागृति लहर के साथ भी संबंधित हैं जिसको भक्ति लहर के नाम से जाना जाता है। नव-जागृति की इस क्रांतिकारी लहर ने भारतीय लोक मानस को विदेशी मूल के, तुर्क-मंगोल-अफ़ग़ान, आक्रान्ताओं और दमनकारी शासकों के सदियों से चले आ रहे आतंक से मानसिक मुक्ति प्रदान करने की चेष्टा की। इसके साथ ही इस लहर से जुड़े संतों और भक्तों ने तत्कालीन भारतीय समाज में प्रचलित खोखले धार्मिक कर्मकाण्ड और सामाजिक कुरीतियों का भी विरोध किया और धर्म को उसके वास्तविक, आध्यात्मिक, अर्थों में स्थापित किया।
गुरु नानक देव ने वाणी के रूप में एक वृहत आकार की काव्य रचना की जिसका प्रामाणिक संकलन आदि ग्रंथ अथवा गुरु ग्रंथ साहिब के पावन ग्रंथ में दर्ज है। इस ग्रंथ में यह वाणी 19 रागों के अंतर्गत शामिल की गई है। इसमें छोटे और बड़े आकार की अनेक महत्वपूर्ण रचनाएं शामिल हैं। जब हम गुरु नानक वाणी का गहन अध्ययन करते हैं तो हमें पता चलता है कि इसमें आम बोलचाल की भाषा के साथ साथ भारतीय दर्शन की शब्दावली का भी प्रयोग किया गया है। वास्तव में ये वाणी भारत की सनातन ज्ञान परंपरा के साथ रचनात्मक संवाद स्थापित करती है और अपने दार्शनिक विमर्श का सृजन करती है।
प्रत्येक मानव समुदाय अपनी आध्यात्मिक और नैतिक अगुवाई के लिए बार-बार अपने पावन ग्रंथों की ओर लौटता है। इन पावन ग्रंथों की विशेषता यह है कि इनके सरोकार सर्वकालीन होते हैं परंतु इनका भाषाई मुहावरा समकालीन होता है। इतिहास के विशेष काल-खंड में रचे गए यह पावन ग्रंथ अक्सर समकालीन स्थितियों और राजनीतिक अवचेतन से प्रभावित होते हैं। अतीत की विरासत को वर्तमान में प्रासंगिक बनाकर ग्रहण करना किसी समुदाय के जीवंत होने की निशानी है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर, हम ने गुरु नानक वाणी का अध्ययन करने की चेष्टा की है। हमने इस वाणी को भारत की उस सनातन ज्ञान परंपरा के संदर्भ में रख कर देखने का प्रयास किया है जो चिरंतन काल से हमें जीवन के आदर्श मूल्यों की शिक्षा प्रदान करती रही है। गुरु नानक देव की काव्य चेतना का मूल आधार परमार्थ चिंतन माना जा सकता है। उनकी वाणी की निम्न-अंकित पंक्तियां इसी बात की ओर संकेत करती है:
जैसी मै आवै खसम की बाणी तैसड़ा करी गिआनु वे लालो ॥
पाप की जंञ लै काबलहु धाइआ जोरी मंगै दानु वे लालो ॥
सरमु धरमु दुइ छपि खलोए कूड़ु फिरै परधानु वे लालो ॥
सच की बाणी नानकु आखै सचु सुणाइसी सचु की बेला।
(गुरु ग्रंथ साहिब, 722-23)
गुरु नानक देव जी द्वारा इन काव्य पंक्तियों का उच्चारण मुगल आक्रांता बाबर के हिंदुस्तान के ऊपर हमले के समय किया गया है। उस समय वे पश्चिमी पंजाब के एक गांव सैदपुर (एमनाबाद) में अपने परम शिष्य भाई लालो के घर में रुके हुए थे। यह पंक्तियां भाई लालो को ही संबोधित करके रची गई हैं। गुरु जी कहते हैं ‘हे लालो! जैसा ज्ञान मुझे उस खसम (परम पिता परमात्मा) की ओर से आ रहा है वैसा ही ज्ञान मैं तुम्हें दे रहा हूं। ये जो आक्रांता (बाबर) है यह काबुल की ओर से पाप की बारात लेकर आया है। यह अत्याचार द्वारा वधु के रूप में भारत-भूमि का कन्या दान मांग रहा है। इस समय शर्म और धर्म दोनों ही कहीं छुप गए हैं और चारों ओर कूड (असत्य) की प्रधानता है। नानक सच (सत्य) की वाणी बोल रहा है और सच की इस वेला में सच ही सुनाए गा।
यहां ‘ख़त्म की बाणी’ और ‘सच की बाणी’ का सृजनातमक संदर्भ एक ही है। वह है दैवी आवेश का वह चमत्कारी क्षण जिसमें से गुज़रने वाला व्यक्ति अपने अस्तित्त्व की लघुता से ऊपर उठ जाता है और निर्भय हो जाता है। गुरूजी की दृष्टि में कविता अथवा शायरी ऐसा ही एक हौसले वाला कार्य है। यह यथार्थ के समस्या कारों को सुलझाने के लिए परमार्थ से राबता कायम करने का प्रयास है। मानव जीवन के त्रासदिक सत्य के रूबरू होकर गुरु जी परम सत्य पर अपना ध्यान एकाग्र करते हैं:
हम आदमी हां इक दमी मुहलति मुहतु न जाणा ॥
नानकु बिनवै तिसै सरेवहु जा के जीअ पराणा ॥१॥
अंधे जीवना वीचारि देखि केते के दिना ॥१॥ रहाउ ॥
सासु मासु सभु जीउ तुमारा तू मै खरा पिआरा ॥
नानकु साइरु एव कहतु है सचे परवदगारा ॥२॥
(गुरु ग्रंथ साहिब, 660)
गुरु जी कहते हैं कि हम ‘आदमी’ हैं अर्थात हमारा जीवन एक ‘दम’ पर ही टिका हुआ है हमें इस बात का कोई ज्ञान नहीं कि हमें जीने की कब तक की मुहलत मिली है और किस महू्र्त में हमारे जीवन का अंत होने वाला है। इस लिए यही उचित है कि हम उस परमात्मा का स्मरण करें जिसने हमें यह जीवन प्रदान किया है। जीवन की अनिश्चितता और मौत की अटलता का यह अहसास मानव जीवन में निरंतर संवाद की आवश्यक आवश्यकता पर भी बल देने वाला है। इसी भाव की अभिव्यक्ति गुरु नानक वाणी की निम्न अंकित काव्य-पंक्तियों में हुई है:
जब लगु दुनीआ रहीऐ नानक किछु सुणीऐ किछु कहीऐ ॥
भालि रहे हम रहणु न पाइआ जीवतिआ मरि रहीऐ ॥५॥२॥
(गुरु ग्रंथ साहिब, 661)
गुरु जी कहते हैं हे नानक, जब तक हम इस दुनिया में रहें कुछ सुनें और कुछ कहें। हमने बहुत खोजबीन कर ली है और पता चला है कि यह जीवन सदा रहने वाला नहीं है। कुछ कहने और कुछ सुनने से तात्पर्य यहां परस्पर संवाद के महत्व को उजागर करने का है। इस तरह, गुरु नानक देव ने संवाद की इस क्रिया को ज्ञान प्राप्ति के माध्यम के रूप में स्थापित है।
गुरु नानक वाणी की विधा-गत विशेषता यह है कि यह काव्य और संगीत के माध्यम से दार्शनिक विमर्श का निर्माण करती है। गुरु नानक देव जी ने शास्त्रीय संगीत के 19 रागों में अपनी वाणी की रचना की है और इसके साथ ही उन्होंने लोकसंगीत की प्रचलित धुनों को भी प्रयोग किया है। इस तरह क्लासिकल और लोक का एक विचित्र प्रकार का सामंजस्य उन की वाणी में दृष्टिगत होता है। इसके साथ ही उन्हों ने काव्य-सृजन की भी अनेकों रूप-विधाओं का प्रयोग किया गया है जो हमारी क्लासिकल भारतीय साहित्य परंपरा और लोक परंपरा से संबंधित हैं।
गुरु नानक देव जी ने मानव जीवन के लौकिक सरोकारों को आध्यात्मिक दृष्टि से परिभाषित करते हुए एक संतुलित जीवन शैली का संदेश संचारित किया है। उन्होंने भारतीय परंपरा में प्रचलित मानव जीवन के चार पुरुषार्थों को अपना आधार बनाया है। यह चार पुरुषार्थ हैं - धर्म अर्थ काम और मोक्ष। उन्होंने मानव जीवन के इन परम उद्देश्यों की चर्चा नए संदर्भ में प्रस्तुत की है। उदाहरण के लिए गुरु नानक वाणी की निम्न अंकित पंक्तियां देखी जा सकती हैं:
मोती त मंदर ऊसरहि रतनी त होहि जडाओ।
कसतूरि कुंगू अगर चंदनि लीपि आवै चाओ।
मतु देखि भूला वीसरै तेरा चिति न आवै नाओं।
हरि बिनु जीउ जलि बलि जाउ।
मैं आपणा गुरु पूछि देखिआ अवरु ना हीं थाओं।
(गुरु ग्रंथ साहिब, 14)
गुरु कवि ने यहां आर्थिक खुशहाली का एक मन-मोहक चित्र प्रस्तुत करते हुए उसकी आध्यात्मिक सार्थकता पर ध्यान आकर्षित किया है। वे कहते हैं, मेरे रहने के लिए मोतियों से बना हुआ एक सुंदर भवन हो जिसमें हीरे-मोती जड़े हुए हों, कस्तूरी और चंदन जैसी सुगंधित वस्तुओं का उस पर लेप किया गया हो। पर ऐसा ना हो कि मैं अपने आवास की इस अत्यंत समृद्ध स्थिति को देखकर प्रभु के नाम को ही भूल जाऊँ। मैं ने अपने गुरू से पूछ कर भली भांति समझ लिया है कि हरि के बिना यह जीव जल कर राख हो जाएगा। इस संसार में उस हरि के बिना कोई भी दूसरा स्थान नहीं है जो प्राप्त करने योग्य है।अर्थात प्रभु परमात्मा ही मानव जीवन का परम आधार है।
मुख्य बात यह है कि गुरु नानक वाणी की पृष्ठभूमि में भारतीय दर्शन की परंपरा कार्यशील है। इसमें जीवन और यथार्थ के परम सत्य को केंद्र में रखा गया है जिसका परम प्रतीक ब्रह्म है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है के गुरु नानक वाणी में ब्रह्म जीव और जगत की व्याख्या को ही दार्शनिक सरोकार माना गया है। वैदिक साहित्य में ब्रह्म की परिभाषा - “सर्वं खलुविदं ब्रह्म” और “सत्यम ज्ञान अनंतं ब्रह्म” आदि महावाक्यों के माध्यम से की गई है। ब्रह्म सृष्टि का परम सत्य है और यही दृष्टमान संसार का करता है। भारतीय सभ्यता के सबसे प्राचीन ज्ञान-ग्रंथ, ऋग्वेद में ‘नासदीय सूक्त’ के अंतर्गत इस का सुंदर वर्णन किया गया है। इस सूक्त का हिंदी में सरल काव्य-अनुवाद निम्नलिखित है:
असत् नहीं था तब, ना ही सत् था,
अंबर नहीं था, ना ही पार फैला हुआ महा-आकाश।
परदे में छिपा, क्या था और कहां, किसने थामा था उसे,
तब तो अगम अगाध जल भी कहां था।
मृत्यु नहीं थी वहां, ना ही अमर जीवन,
रात नहीं थी और ना दिन के प्रकाश का संकेत कोई।
बिना हवा के सांस लेता हुया,
अपने आप पर निर्भर, तब केवल एक था,
उस के सिवा कोई दूसरा नहीं था।
अँधेरा था वहां, अँधेरे से ढंका हुआ,
अंधकार था चारों तरफ। था तो बस निराकार शून्य,
तपस की महा ऊर्जा से उपजा पुंज।
फिर, पहले पहल, कामना का हुया उभार, मन का आदि-अनादि बीज।
अंतर की सूझ वाले मुनिजनों ने, समझ लिया था भली भांति,
रिश्ता क्या है अस्तित्त्व का अनस्तित्त्व के साथ।
फैला दिया उन्हों ने सूत्र को, महा शून्य के आर पार,
ऊपर वार और नीचे भी।
धारणीय महा शक्तियां तत्पर थीं वहां,
नीचे थी ऊष्मा, ऊपर असीम ऊर्जा।
कौन जानता है, कैसे उत्पन्न हुया यह संसार,
देवताओं का भी बाद में हुया प्रादुर्भाव।
ना जाने रची गई, कब यह रचना, कौन है सृष्टि का कर्ता, कर्ता या अकर्ता?
अंतर्यामी कौन है, ऊंचे अंबर वाली इस धरा का?
वही जानता है, जो है स्वामी इसका, या फिर शायद वह भी नहीं जानता।
ॠग्वेद 129.10 (काव्य-अनुवाद: जगबीर सिंह)
नासदीय सूक्त में वर्णित सृष्टि रचना की इसी रहस्यमय स्थिति के साथ रचनात्मक संवाद रचाते हुये गुरु नानक देव ने मारू राग में लिखा है:
अरबद नरबद धुंधूकारा ॥ धरणि न गगना हुकमु अपारा ॥
ना दिनु रैनि न चंदु न सूरजु सुंन समाधि लगाइदा ॥१॥
खाणी न बाणी पउण न पाणी ॥ ओपति खपति न आवण जाणी ॥
खंड पताल सपत नही सागर नदी न नीरु वहाइदा ॥२॥[5] . . .
जा तिसु भाणा ता जगतु उपाया। बाझु कला आडाण रहाया।
ब्रह्मा बिसनु महेसु उपाए माइआ मोहु वधाएंदा।
(गुरु ग्रंथ साहिब, 1035)
इस तरह गुरू जी ने सृष्टि रचना से पूर्व की शून्य अवस्था का जो वर्णन किया है वह नासदीय सूक्त में वर्णित स्थिति के अनुरूप है। इस में गुरू नानक देव जी ने अपनी ओर से कुछ नया जोड़ने का प्रयास भी किया है। उन्हों ने सृष्टि रचना के कारण के रूप में प्रभु की इच्छा (भाणा) और त्रिदेव (ब्रह्मा विष्णु महेश) को शमिल ऋग्वेद की दार्शनिक शब्दावली में ‘सत्यम’ और ‘ऋतं’ की अवधार्णा बहुत महत्वशील है। सत्यम सृष्टि रचना के परम यथार्थ की ओर संकेत करता है और ऋतं संपूर्ण ब्रह्मांड में कार्यशील विधान का द्योतक है। गुरू नानक वाणी में इन अवधार्णेओं को ‘सच’ और ‘हुक्म’ के हवाले से प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के तौर पर गुरू नानक देव जी की दार्शनिक रचना ‘जपुजी’ की निम्न-अंकित पंक्तियां देखी जा सकती हैं:
आदि सचु जुगादि सचु, है भी सचु, नानक होसी भी सचु। . . .
किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि ॥
हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि ॥१॥
हुकमी होवनि आकार हुकमु न कहिआ जाई ॥
हुकमी होवनि जीअ हुकमि मिलै वडिआई ॥
हुकमी उतमु नीचु हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि ॥
इकना हुकमी बखसीस इकि हुकमी सदा भवाईअहि ॥
हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोइ ॥
नानक हुकमै जे बुझै त हउमै कहै न कोइ ॥२॥
(गुरु ग्रंथ साहिब, 1)
गुरु नानक की गुरु नानक वाणी की इन पंक्तियों में सत्यम और ऋतं की अवधारणा को सच और हुकुम की अवधारणा के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया है। इन अवधारणाओं का अर्थ वही है परंतु शब्दावली अलग है। यह शब्दावली लोक भाषा से ली गई है। इस तरह हमें गुरु नानक वाणी में भारतीय धार्मिक परंपरा की निरंतरता का आभास होता है। गुरु नानक देव जी ने सृष्टि रचना को एक खेल कहा इस सृष्टि के रचयिता ने अनेकों रंगों और आकारों वाले यह संसार की रचना की है जिसकी तुलना किसी नाट्य-रचना के माध्यम से पेश होने वाले कल्पनाशील यथार्थ से की जा सकती है :
तूं करता पुरखु अगंम है आपि सृसटि उपाती।
रंग परंग ‘पारजना बहु बहु बिधि भाती
तूं जाणहि जिनि उपाइऐ सभु खेल तुमाती
इकि आवहि इकि जाहि उठि बिनु नावै मरि जाती।
(गुरु ग्रंथ साहिब, 138)
गुरु नानक वाणी की मुख्य विशेषता यह है कि इस की रचना तो बेशक कविता या शायरी के रूप में हुई है परंतु यह शुद्ध काव्य रचना नहीं है। इस बात का एहसास खुद गुरु नानक देव जी को भी है। उन्होंने अपनी वाणी में इस ओर संकेत करते हुए कहा है:
गावहु गीतु न बिरहड़ा नानक ब्रहम बीचारो ॥८॥३॥
गुरू जी कहते हैं कि यह जो मैं गा रहा हूं वह कोई गीत या बिरहडा (लोक गीत की एक वानगी) नहीं है। यह तो ब्रह्म-विचार है। दूसरे शब्दों में गुरू नानक देव जी अपनी वाणी को ब्रह्म विचार करने वाली रचना अर्थात दार्शनिक रचना के रूप में देखते हैं। इस का सरोकार जीवन के अंतिम अर्थों की तलाश से जुड़ा हुया है।
उनका जीवन दर्शन एक ऐसी जीवन शैली की ओर संकेत करता है आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण है। गुरू जी दृष्टि में एक आदर्श मानव वह है जो साहित्य संगीत और कला की समझ रखता हुआ दार्शनिक दृष्टि में परिपक्व है:
इकि कहि जाणनि कहिआ बुझनि ते नर सुघड़ सरूप ॥
इकना नादु न बेदु न गीअ रसु रसु कसु न जाणंति ॥
इकना सिधि न बुधि न अकलि सर अखर का भेउ न लहंति ॥
नानक ते नर असलि खर जि बिनु गुण गरबु करंत ॥१५॥
(गुरु ग्रंथ साहिब,1246)
गुरु जी कहते हैं कि संसार में दो ही तरह के व्यक्ति हैं। एक वह हैं जो कहना जानते हैं और कही हुई बात को बूझना भी जानते हैं। ऐसे व्यक्ति वास्तव में बुद्धिमान हैं। इनके अलावा दुनिया में दूसरे व्यक्ति भी हैं जिनको ना तो नाद की समझ है और ना वेद का ज्ञान है। वे कला और साहित्य के रसों से परिचित नहीं हैं। विवेक बुद्धि से कोरे होने के कारण वे अक्षर का भेद समझ सकने का सामर्थ्य नहीं रखते। ऐसे व्यक्ति तो असल में खर (पशु) हैं जो बिना गुणों के अभिमान में रहते हैं। यहां सहवन ही हमें भर्तरीहरि के इसी भाव के कथन का स्मरण होता है:
साहित्य संगीत कला विहीण: साक्षात पशु: पुच्छ विषाण हीण:
गुरू नानक वाणी जिस आदर्श मानव की संकलपना प्रस्तुत करती है वह दार्शनिक दृष्टि से जाग्रित और अंतर-व्यक्तिगत संवाद के हेतु भाषाई योज्ञता रखने वाला बुद्धिमान व्यक्ति ही हो सकता है। इस तरह गुरू नानक की यह वाणी भारतीय ज्ञान परंपरा के साथ रचनात्मक संवाद रचाने वाली रचना के रूप में उजागर होती है।
Prof. Jagbir Singh
Former Head, Department of Punjabi,
University of Delhi.
Life Fellow, Punjabi University, Patiala.
Former Adjunct Professor, Religious & Civilizational Studies, SGGS World University, Fatehgarh Sahib, Punjab.
Member, IIAS, Shimla.